समस्यापूर्ति-
अशोक
चक्रधर
मनुष्य
द्वारा गढ़ी गयी, बनायी गयी, रची गयी कलाओं में सबसे ज़्यादा
कमनीय है कविता। यह भी कह सकते हैं कि हर कला के मूल में होती
है कविता। मैं मानता हूँ कि हर किसी के पास होती है कविता।
जिसके पास एक धड़कता हुआ दिल है, जिसके पास फड़कती हुई घटनाओं को
तौलने, नापने, समझने, विचारने की विश्लेषणात्मिका, क्षमता है,
बुद्धि है, उसके पास है कविता। हर वो शख्स जो सपने देखता है,
दिन में या रात में, उसके पास है कविता और हर वो इन्सान जिसके
पास कोई न कोई मकसद है, जीने का, अपने लिये या संपूर्ण समाज के
लिए, उसके पास भी होती है कविता।
ये सारी की
सारी चीजें मिल कर एक साथ हो तब तो कहने ही क्या हैं, अगर
एक–आध कम भी है या कमजोर भी है तो भी हमें पता नहीं चलता कि
दिन में हम कितनी बार ऐसे वाक्य बोल जाते हैं जो अगर लिपिबद्ध
कर दिये जायें तो कविता हो जाये। काव्यशास्त्रियों ने कविता के
बड़े–बड़े पैमाने तैयार किये, छंद शास्त्र बना, रस कसौटी हुआ तो
कभी अलंकार कसौटी बने, कभी रीति, कभी ध्वनि, कभी वक्रोक्ति के
आधारपर कविता को कसा गया। लेकिन सीधी सरल बात भामह ने कह दी थी
कि शब्द और अर्थ के सहित भाव को कविता कहते हैं। तो कविता की
मोटी जरूरतें हुई दो, पहला शब्द और दूसरा अर्थ। दूसरा तत्व
पहले के लिये शर्त है। अगर शब्द अपनी शर्तों को पूरा करते हैं
तो कविता होते देर नहीं लगती।
धीरे धीरे इन दो, तत्वों
की ही प्रकारान्तर से व्याख्या होने लगी कि उसमें गुण होने
चाहिये, उसमें दोष नहीं होने चाहिए, वो रसात्मक होनी चाहिए,
उसमें वाग्वैदग्ध्य होना चाहिए, रीतिकार ने कहा कि उसमें कुछ
विशिष्ट रीतियाँ हो तभी वह काव्य कहलाएगी। ध्वनिवादी आचार्यों
ने कहा कि कविता तो ऐसे है जैसे अंगूर के अन्दर से उसका रस
छलका पड़ता है, कविता तो एक गूंज है, एक नाद है, निनाद है जैसे
किसी बड़े घंटे के बजने के बाद एक गूंज रह जाती है। या एक गूंज
जो किसी चरवाहे की बांसुरी से निकल कर पर्वतों की उपत्यकाओं
में खो जाती है। वह गूंज जब शब्दों को तलाश ले और भाषा के
सहारे भावों के मनोलोक में अंतर्यात्रा करें, ऐसा शब्दविधान हो
कि दूसरा उस पर कुर्बान हो, सराहे, चाहे, वाह वाह कह उठे तो
फिर वो कविता दूसरों को भी याद होने लगती है। वो उद्धृत की
जाने लगती है, वो रसात्मक वाक्य बन जाती है, वह रमणीय अर्थ का
प्रतिपादन करने लगती है, द्विवेदी जी ने कहा कि अंतःकरण की
वृत्तियों का चित्र बन जाती है या आचार्य रामचंद्र शुक्ल को
याद करें तो उन्होंने कहा था कि जिस प्रकार आत्मा की
मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की
मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है, तो हृदय की मुक्ति की सी साधना
के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आयी है, वो कविता
है।
शुक्लजी कहते
हैं कि सहृदय होना आवश्यक है और आप तो जानते हैं कि हमारी
वेबपत्रिका का नाम ही अनुभूति है। अनुभूति का सीधा संबंध हमारे
हृदय से है और वे सब जो अनुभूति के पाठक हैं वे अभिव्यक्ति के
चाहक हैं, वे सब के सब सहृदय हैं। पूर्णिमा वर्मन के अनुरोध पर
मैं चाहता हूँ एक सिलसिला और जुड़े समस्यापूर्ति का, कविता रचने
की प्रक्रिया का और खूब सारी कविताओं के रचे जाने की प्रक्रिया
का। समस्यापूर्ति एक दरबारी संस्कृति से उत्पन्न संस्कृति जरूर
है लेकिन एक कवायद है, हमारी बुद्धि, कल्पना, भावना, भाषा और
हमारे उद्देश्यों के बीच। एक संगति है हमारी संवेदनाओं और
हमारे ज्ञानात्मक आधारों के बीच।
तो क्यों न
सिलसिला शुरू करें, कोई भी एक पंक्ति लें और उस पंक्ति को आधार
बनाकर या मझधार में कहीं विद्यमान करते हुए या अंतर्धारा में
कहीं भी इसको स्थान देते हुए लिखें, आवश्यक नहीं हैं कि आप तुक
मिलाएं, यह भी आवश्यक नहीं हैं कि न मिलाएं। आपको कोई छंद में
ये पंक्ति लगे कि समा सकती है तो छंदबद्ध लिखें, गज़ल आप को
प्रिय है तो गज़ल में पंक्ति को कहीं पिरों दे और अपनी प्रतिभा
को सामने लायें जो कि सचमुच आपके पास है।
मैं यह नहीं मानता कि प्रतिभा पर ठेकेदारी सिर्फ कुछ लोगों की
होती है।
अपनी कल्पनाओं की उड़ानपर निकल चलिये, फैंटेसी में खो जाइये,
शब्दों को खोजिये, अपने अपने भावों की अनुगूंज के लिये।
— अशोक चक्रधर |