धुँधले परिदृश्य
व्यर्थ रहा आँखों पर फेरना
रूमाल
धुँधले ही बने रहे सारे परिदृश्य!
दृष्टिबोध बिकने के सारे बयनामे
बंद किस तिजोरी में कैसे पहचाने!
छीन गये सूरज जो जाने थे कौन हाथ
चुभती हैं पाँवों को किरनें अदृश्य!
चलो एक दो पल को लेते हैं मान
धुएँ की लकीर यज्ञ की भी पहचान!
किन्तु यज्ञ कैसा यह समझाना तुम
बना रहे जैसा ही मुझको भविष्य!
अक्सर वह गुज़रा है दे कंधे थाप
खोजता फिरा हूँ उन कदमों के चाप!
भटकाया मुझको या स्वयं कहीं दूर
जा भटका अपना नि:संगी भविष्य!
किरनों को निगल गयी शोर भरी शाम
चाँद का उदास ख़त कोहरों के नाम!
अपने इस धूल गर्द के पड़ाव से
ढूँढ़ता नहीं हूँ मैं कोई सादृश्य!
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