जगदीश चन्द्र ‘जीत’
जन्म: ७ मई १९३४, डेर इस्माइल ख़ान (पाकिस्तान)
में।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), साहित्यरत्न।
कार्यक्षेत्र:
सहायक सम्पादक, भारतीय साहित्य विश्वकोश, साहित्य
अकादमी नई दिल्ली।
कृतियाँ:
सन्त वचनामृत रत्नकण, बदलते भाव उभरते स्वर, अफ़सर नामा, स्मेकल की
प्रतिनिधि कविताएँ, कवि स्मेकल की नज़रों में, नानी कहो कहानी,
महिला हिन्दी साहित्यकार ।
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दो कविताएँ
जीवन रहस्य
मौन खड़ा रहता हूँ
और
देखता रहता हूँ
इन उठने वाली असंख्य लहरों को
जो निरंतर खेलती रहती हैं
सागर की छाती पर
एक के बाद एक
बढती आती हैं
तीव्रवेग से
उठती, उभरती,
और छलाँगें भरती।
मानो प्रत्येक इसी कोशिश में रत है
कि आगे ही आगे निकलती जाए
एक दूसरी से।
ओह यह कैसी आपाधापी
यह कैसी प्रतिद्वन्दिता की भावना
जहाँ देखो जिधर देखो
दूसरों को पीछे छोड़
स्वयं आगे बढ़ जाने का शोर
युगों युगों से अनन्तकाल से सुनता आ रहा हूँ
आश्चर्य कोई भी रूक कर
दम लेने की बात नहीं करता
जो भी पीछे से आता है
धक्का मुक्की से
आगे बढ़ने की कोशिश करता है
शायद जीवन का रहस्य यही है
जो सबको पीछे छोड़ता हुआ आगे बढ़ जाए
जगत में सफल वही है।
आज का आदमी
मानव मनु की संतान
आज कितना स्वार्थी है
अकेला खाता है।
अकेला पीता है
पास में पडोसी
कितने दिन से भूखा-नंग
पडा हो
मरा हो
कौन जाने?
परिवार के दो-चार सदस्यों की
उदर-पूर्ति में
समझता है आज का मानव
अपने जीवन का कल्याणमय लक्ष्य।
और -
हाँकता है डींग सभ्यता के विकास की
पहनकर दो-चार उजले कपडों को।
जीने को सब जीते हैं
मानव भी
पशु भी
लेकिन अंतर होता है दोनों में -
जीने का
बुद्धी का
और -
क्रिया शक्ति का
जो नहीं रहा आज के मानव में।
१५ सितंबर २००० |