सत्यप्रकाश
ताम्रकार 'सत्य'
|
|
चार व्यंग्य रचनाएँ
एक
सूर के श्याम की काली कामरिया
और नेता जी के धवल कुर्ते पजामे में
फ़र्क़ ही जान नहीं पड़ता।
क्योंकि,
उस पर भी रंग नहीं चढ़ता।
और इस पर भी रंग नहीं चढ़ता।
दो
अख़बार में समाचार आया।
कि –"एक नेता जी को बंदर ने काट खाया।
नेताजी को अस्पताल में भर्ती कराया,
जहां उनके स्वास्थ्य में सुधार आया।"
इस समाचार में भी,
अख़बार वालों ने बहुत कुछ छुपाया है।
बंदर के स्वास्थ्य के बारे में कुछ नहीं बताया है।
तीन
भंग की तरंग में एक आदमी ने दूसरे से पूछा–
"भाई साहब! इस वर्ष पंद्रह अगस्त कितनी तारीख को पड़ेगा?"
दूसरा बोला–
"यार! यह तो कलेण्डर देख कर ही पता चलेगा।"
तभी तीसरा बोला,
खा कर भंग का गोला।
"मेरे पास आइए।
एक–एक गोला और लगाइए।
रंग और गुलाल उड़ाइए।
होली मनाइए।
क्यों व्यर्थ में स्वतंत्रता दिवस के चक्कर में पड़ रहा है।
दिखता नहीं,
देश तो फिर से परतंत्रता की ओर बढ़ रहा है।
चार
कुत्ते को कुत्ता कहोगे,
तो काटेगा।
और डॉगी कहोगे,
तो चाटेगा।
किंतु कुत्ता तो कुत्ता ही है।
चाहे चाटे,
चाहे काटे।
चाटे, तो छाजन।
और काटे, तो चौदह इंजेक्शन।
फिर क्यों न कुत्ते को कुत्ता ही कहा जाए।
और इसके पहले कि वह काटे,
उसके मुंह को एकलव्य की तरह वाणों से भर दिया जाए।
एकलव्य की तरह वाणों से भर दिया जाए।
९ जनवरी २००५
|