पतझर
कुछ हाइकु
डॉ. मनोज सोनकर
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कोई न सगा
दरख्त हड्डियाँ
पत्ता भी भगा।
पेड़ हैं कोसे
हरीतिमा बेवफा
थोथे भरोसे।
वन तो नंगा
पतझर सनकी
मचाए दंगा।
पहाड़ गंजा
पतझर लड़ाकू
मारा है पंजा।
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तुम क्या गए
पतझर ही छाया
पात न नए।
पंछी निराश
दरख्त कंकाल
दवा न पास।
भूरी सी शाम
उतरी ठूँठों पर
सर्दी के नाम
सुरज ठंडा
पतझर जुझारू
सर्दी का डंडा।
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