अनुभूति में
कुमार शैलेन्द्र
की रचनाएँ-
गीतों में-
अब भी दिल्ली दूर
बँटवारा बो गया कौन
संकलन-
बरगद-
गाँव गए तो |
|
बँटवारा बो गया कौन
पसरा है
हर ओर मौन, बस्ती में
बँटवारा बो गया कौन,
बस्ती में
गर्म दुपहरी
से बहुओं के तेवर
सहमी सहमी सास, दबे से देवर
अटे फूट से सभी मौन,
बस्ती में
भाई का
अनुराग कटा, भाई से
अलग सुपुत्तर हुआ, बाप-माई से
आंगन दुर्लभ, बंटा जो न,
बस्ती में
पिछला-कर्जा
जिंदा है, होरी का
उस पर बाकी ब्याह, जवां छोरी का
अब उधार ना मिले नौन,
बस्ती में
१७
दिसंबर २०१२
अभी भी दिल्ली दूर
सुविधाएँ
काफूर, हमारे गाँव से
अब भी दिल्ली दूर, हमारे
गाँव से
प्यार,
दोस्ती, भाईचारा, अपनापन
रिश्ते, नातों की प्रगाढता के बंधन
विदा हुए दस्तूर,
हमारे गाँव से
अब भी दिल्ली दूर, हमारे
गाँव से
भूख,
गरीबी, बेकारी के चमगादड
घोर अभावों, बीमारी के चमगादड
जाते नहीं हुजूर,
हमारे गाँव से
अब भी दिल्ली दूर, हमारे
गाँव से
हर मन
पर अब तने ईर्ष्या के अम्बर
हर आंगन में गये फूट के पाँव पसर
एका गया जरूर,
हमारे गाँव से
अब भी दिल्ली दूर, हमारे
गाँव से
१७
दिसंबर २०१२
कितने रूप धरे
सुबह दुपहरी शाम, दिवस ने कितने रूप धरे
मौसम भी इस परिवर्तन को, रोज सलाम करे
जेष्ठ मास में तापमान ने
सब रिकार्ड तोडे
हुई धरा ज्वर ग्रस्त -
गगन ने, अग्निबाण छोडे
जल का गर्म मिजाज हुआ, मिट्टी में पांव जरे
मौसम भी इस परिवर्तन को, रोज सलाम करे
सावन भादौ आये तो -
नभ से, राहत बरसी
वर्षा का स्पर्श मिला -
प्यासी धरती सरसी
धोखा दे जाते हैं बादल, कभी-कभी नुगरे
मौसम भी इस परिवर्तन को, रोज सलाम करे
धुंध, कोहरा आसमान ने
कपडों से झाडे
पौष माघ में सर्दी ने -
अपने झंडे गाडे
गायब हुए चांद, सूरज के, सभी नाज रखरे
मौसम भी इस परिवर्तन को, रोज सलाम करे
खिले बाग में फूल -
डाल पर कोयलियां बोली
मधुमासी बयार ने दिल म -
लगी गांठ खोली
अब बसंत में अच्छे लगते, फागुन के मुजरे
मौसम भी इस परिवर्तन को, रोज सलाम करे
|