अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
सहायक निदेशक (रा.भा.)
रक्षा मंत्रालय (वित्त)

 

श्री राम का महाप्रयाण

एक दिवस हो विकल अयोध्यापति उदास बैठे थे,
नहीं समझ में कुछ आता था समय आन ऐसे थे।
कोई नहीं निकट रघुवर के संध्याकाल समय था,
जीवन के इस संध्या में तनहा शरीर दुखमय था।
सारी प्रजा सु्खी थी,देश सुरक्षित अभय प्रबल था,
पर, जाने क्या बात अयोध्यापति का हृदय विकल था।
त्वरिय वेग से संध्या आच्छादित कर रही नगर को,
कुछ भी नहीं समझ में आता आर्यपुत्र रधुवर को।
सिर को लिए हथेली में मन बहुत दूर भटका था,
प्रजा और निज जीवन के द्वंदों में वह अटका था।
यदि जीवन निज का है तो क्यों बंधन वाह्य प्रबल है,
क्या इस बंधन की खातिर निज जीवन अर्पण छल है।
यह जीवन जिसका है वह क्यों इसे नहीं जी पाता,
मानव जीवन से समाज का कैसा है यह नाता।
जब जी चाहे यह समाज स्वातंत्र्य व्यक्ति हर लेता,
निज के हित के लिए अहा, अपनों को बलि दे देता।

बार-बार रघुपति उन्मुख होते थे कनक भवन को,
मानों भूले भटके पूछ रहे हों निज सीता को।
वनवासी का जीवन तो कबका आँसू ही बीत गया था,
पर रधुपति का अन्तर्मन कुछ अधिक आज रीता था।
सीता के वस्त्राभूषण श्रृंगारदान सब लखकर,
बरबस आँसू बह निकले दोनों नयनों से टप-टप।
राजकाज से थके राम नित सरयू तट जाते थे,
संध्या प्रवण साधकर फिर ओजवान बन जाते थे।
नेत्र पोछ लंबे डग से वे पहुँचे सरयू तट पर,
मानों अंत लिवा जाता हो उनको अपने घर पर।
आँखों पर आँसू की बूँदें हिमवत जड़ी पड़ी थीं,
ध्यान मग्न होते ही यादों की चल पड़ी कड़ी थी।
कुश पसार अस्ताचल अभिमुख बैठे राम अचल थे,
पर सीता के लिए आज कुछ अधिक भाव विह्वल थे।

सहसा मन भट गया जनकपुर प्रथम मिलन सीता का,
अधरों पर खिल गए कमल वह अमर भाव प्रीता का ।
जिस सीते के लिए स्वयंबर में शिवधनु तोड़ा था,
परशुराम से राम बना धरती पर तरित हुआ था ।
साथ-साथ चलने जीवन जीने का शपथ लिया था,
सप्तपदी के छंदों से जिसका मैं वरण किया था।
पुर समाज के साथ जिसे साकेत ब्याह था लाया,
हाय नियति उस अबला को उसका हक सौंप न पाया।
माँ होकर माँ समझ न पाई युवा प्रेम के मन को,
माँग लिया बूढ़े पति से छलपूर्वक वनगमन को।
समझ न पाई क्यों माँ सीते की मन की भाषा को,
नव दंपति, नव परिणीता मन के सुख की आशा को।
विक्षिप्त दशा वन-वन भटका सीते की खोज रहा जीवन,
सीते की खातिर लड़ा महासंग्राम मार लंका रावण।
जब मैं था मेरा निर्णय था सीते को कहीं नहीं भय था,
पर सिंहासन पर आते ही उनको क्यों मिला महा बल था।

इसका हल उनकी लाज हेतु फिर से वन भेजा जाना था,
अबला के उपर सबलों का यह खेल पूर्ववत चलना था।
माना मेरे बारे में कुछ कहना उनका अपना हक था,
पर सीते पर उनका वह लांछन तो परम अवांछित था।
मेरा मन मेरा प्रेम भाव मेरा प्रति प्रेम चयन करना,
इससे जनता की मरजी या शंका को क्या लेना देना।
प्रेम जनित मानव मन के परितः क्यों खड़ी दीवारें ये,
क्यों युवा प्रेम के खिलने पर घर-घर उठती तकरारें ये।
है प्रेम सदा उन्मुक्त भाव यह ऊँच नीच का भेद नहीं,
इस पर पहरा रखना प्रमाद इसका कोई भी वेद नहीं।
मैं परम पुरूष, ज्ञानी अपार फिर भी प्रतिरोध न कर पाया,
इन ओझा,सोखा,मूढ़ों के फेरों में क्यों कर फँस आया।
शायद वन होता कठिन धाम यदि सीता साथ नहीं होती,
चौदह ऋतु क्या शतकोटि जनम सीते के लिए कमी होती।

सूर्य धुमिल पड़ रहा मलिन छाया छा रही विकल थी,
इसे पकड़ने की आतुरता सरयू को पल-पल थी।
प्रणव साधना से उठकर रघुपति सरयू की ओर चले,
काँपी फिर लहराई सरयू नयनों से आँसू बह निकले।
निज कायरता पर अति निराश रघुबीर अशक्त प्रबल थे,
सीते-सीते कहते- कहते हो रहे अधीर विकल थे।
गहरी पीड़ा में सरयू की गहराई समझ नहीं आई,
सोचा विश्राम यहीं कर लूँ आँखों पर अँधियारी छाई।
फिर समा गए सरयू जल में मानव चोले को छोड़ चले,
अबलों के ऊपर सबलों के दुष्चक्र जाल को तोड़ चले।
प्राण हुआ निस्संग राम ने जल समाधि ले डाली,
बनकर कृष्ण पुनः आऊँगा वचन सुनों हे आली।
तोड़ूँगा हर उस बंधन को जिससे जीना दुष्वार बना,
मानव जीवन से उच्च नहीं मर्यादा का ताना-बाना।
यह जीवन तेरा अपना है ,इसको जिओ तुम जी भरके,
संदेश आज यह मेरा है कहता हूँ निज तन तज करके।
मैं राम नहीं, बलराम नहीं, न परशुराम न अयोध्यापति,
मैं सीतापति, मैं सीतापति, मैं सीतापति,
मैं सीतापति।।

२ दिसंबर २०१३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter