मंगलाचरण
गुरू गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति।
सादर सेष सुकबि श्रुति संत सरल मति ।१।
हाथ जोरि करि बिनय सबहि सिर नावौं।
सिय रघुबीर बिबाहु जथामति गावौं।२।
सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक।
सुनत श्रवन हिय बसहिं सीय रघुनायक।३।
देस सुहावन पावन बेद बखानिय।
भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन जानिय।४
तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर।
सीय लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर।५।
जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक।
सब गुन अवधि न दूसर पटतर लायक।६।
भयेहु न होइहि है न जनक सम नरवइ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलइ।७।
नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर परिजन।
करि मत रच्यौ स्वयंबर सिव धनु धरि पन।८।
(छंद १)
पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति रूचिर रचना बनी।
जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब आपनी।।
पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि सुख पावहीं ।
सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहिं आवहीं।१।
रूप सील बय बंस बिरूद बल दल भये।
मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले।९।
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन ।
सुनि धरि -धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन।१०।
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरू बैठहीं।११।
रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहिं।।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं।१२।
जनकहिं एक सिहाहिं देखि सनमानत।
बाहर भीतर भीर न बनै बखानत।१३।
गान निसान कोलाहल कौतुक जहँ तहँ
सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ।१४।
गाधि सुवन तेहिं अवसर अवध सिधायउ।
नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ।१५।।
पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन।
कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु न।१६।
(छंद२)
काहूँ न कीन्हेउ सुकृत सुनि मुनि मुदित नृपहि
बखानहीं।
महिपाल मुनि केा मिलन सुख महिपाल मुनि मन जानहीं।।
अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन भरीं।
हिय हरषि सुतन्ह समेत रानीं आइ रिषि पायनह परीं।२।
विश्वामित्रजी की राम-भिक्षा
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भई।
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं।१७।
रामहिं भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ।१८।
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
प्रेम पयोधि मगन मुनि न पावहिं।१९।
मधुर मनोहर मूरति चाहहिं।।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं।२०।
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन। २१।
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिदायक।२२।
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहिं।
धर्मकथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहिं।२३।
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरू न आयउ।२४।
(छंद)
आयउ न उतरू बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
कहि गाधि सुत तप तेज कछु रघुपति प्र्रभाउ जनायऊ।।
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।।
करुना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती
घनी।३।
नाथ मोहि बालकन्ह सहित पुर परिजन
राखनिहार तुम्हार अनुग्रह धर बन।२५।
दीन बचन बहु भाँति भूप मुनि सन कहे।
सौंपि राम अरू लखन पाय पंकज गहे।२६।
पाइ मातु पितु आयसु गुरू पायन्ह परे।
कटि निषंग पट पीत करनि सर धनु धरे।२७।
पुरबासी नृप् रानिन्ह संग दिये मन।
बेगि फिरेउ करि काजु कुसल रघुनंदन।२८।
ईस मनाइ असीसहिं जय जसु पावहु ।
न्हात खसै जनि बार गहरू जनि लावहु। २९।
चलत सकल पुर लोग बियोग बिकल भये।
सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए।३०।
होहिं सगुन सुभ मंगल जनु कहि दीन्हेउ।
राम लखन मुनि साथ गवन तब कीन्हेउ।३१।
स्यामल गौर किसोर मनोहरता निधि।
सुषमा सकल सकेलि मनहुँ बिरचे बिधि।३२।
(छंद)
बिरचे बिरंचि बनाइ बाँची रूचिरता रंचौ नहीं ।
दस चारि भुवन निहारि देखि बिचारि नहिं उपमा कहीं।।
रिषि संग सोहत जात मग छबि बसत सो तुलसी हिएँ।
कियो गवन जनु दिननाथ उत्तर संग मधु माधव लिएँ।४।
थ्गर तरू बेलि सरित सर बिपुल बिलोकहिं।
धावहिं बाल सुभाय बिहग मृग रोकहिं।३३।
सकुचहिं मुनिहिं सभीत बहुरि फिरि आवहिं।
तोरि फूल फल किसलय माल बनावहिं।३४।
देखि बिनोद प्रमोद प्रेम कौसिक उर।
करत जाहिं घन छाँह सुमन बरषहिं सुर।।
बधी ताड़का राम जानि सब लायक।
बिद्या मंत्र रहस्य दिए मुनिनायक।।
मन लोगन्ह के करत सुफल मन लोचन।
गए कौसिक आश्रमंिहं बिप्र भय मोचन।।
मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ।
अभय किए मुनिबृंद जगत जसु गायउ।३८।
बिप्र साधु सुर काजु महामुनि मन धरि।
रामहिं चले लिवाइ धनुष मख मिसु करि।३९।
गौतम नारि उधारि पठै पति धामहि।
जनक नगर लै गयउ महामुनि रामहिं।४०।
(छंद)
लै गयउ रामहि गाधि सुवन बिलोकि पुर हरषे हिएँ।
सुनि राउ आगे लेन आयउ सचिव गुर भूसुर लिएँ।।
नृप गहे पाय असीस पाई मान आदर अति किएँ।।
अवलोकि रामहि अनुभवत मनु ब्रह्मसुख सौगुन किएँ।५।
विश्वामित्रजी का स्वयंवर
के लिये प्रस्थान
देखि मनोहर मूरति मन अनुरागेउ।
बँधेउ सनेह बिदेह बिराग बिरागेउ।४१।
प्रमुदित हृदयँ सराहत भल भवसागर।
जहँ उपजहिं अस मानिक बिधि बड़ नागर।४२।
पुन्य पयोधि मातु पितु ए सिसु सुरतरू।
रूप सुधा सुख देत नयन अमरनि बरू।४३।
केहि सुकृती के कुँअर कहिय मुनिनायक।
गौर स्याम छबि धाम धरें धनु सायक।४४।
बिषय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़ स्वारथ।।४५
कहेउ सप्रेम पुलकि मुनि सुनि महिपालक।
ए परमारथ रूप् ब्रह्ममय बालक।४६।
पूषन बंस बिभूषन दसरथ नंदन।
नाम राम अरू लखन सुरारि निकंदन।।
रूप सील बय बंस राम परिसुरन।
समुझि कठिन पन आपन लाग बिसूरन।४८
(छंद)
लागे बिसूरन समुझि पन मन बहुरि धीरज आनि कै।
लै चले देखावन रंगभूमि अनेक बिधि सनमानि कै।।
कौसिक सराही रूचिर रचना जनक सुनि हरषित भए।
तब राम लखन समेत मुनि कहँ सुभग सिंहासन दए।६।
रंगभूमि में राम
राजत राज समाज जुगल रघुकुल मनि।
मनहुँ सरद उभय नखत धरनी धनि।४९।
काकपच्छ सिर सुभग सरोरूह लोचन।
गौर स्याम सत कोटि काम मद मोचन।।
तिलकु ललित सर भ्रुकुटी काम कमानै।
श्रवन बिभूषन रूचिर देखि मन मानै।।
नासा चिबुक कपोल अधर रद सुंदर।
बसन सरद बिधु निंदक सहज मनोहर।।
उर बिसाल बृष कंध सुभग भुज अतिबल।
पीत बसन उपबीत कंठ मुकुता फल।।
कटि निषंग कर कमलन्हि धरें धनु-सायक।
सकल अंग मन मोहन जोहन लायक।।
राम-लखन-छबि देखि मगन भए पुरजन।।
उर अनंग जल लोचन प्रेम पुलक तन।।
नारि परस्पर कहहिं देखि दोउ भाइन्ह।
लहेउ जनम फल आजु जनमि जग आइन्ह।५६।
(छंद )
जग जनमि लोयन लाहु पाए सकल सिवहि मनावहिं।
बरू मिलौ सीतहि साँवरो हम हरषि मंगल गावहीं।।
एक कहहिं कुँवरू किसोर कुलिस कठोर सिव धनु है महा।
किमि लेहिं बाल मराल मंदर नृपहिं अस काहुँ न
कहा।७।
भें निरास सब भूप बिलोकत रामहिं।
पन परिहरि सिय देब जनक बरू स्यामहिं। ५७।
कहहिं एक भलि बात ब्याहु भल होइहिं।
बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि।।
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहिं अस सूझई।
तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बूझहिं।।
चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहू।
बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावहु।।
अवसि राम के उठत सरासन टूटिहि।
गवनहिं राजसमाज नाक अस फूटिहिं।।
कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु।
करहु कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु।।
दुहु दिसि राजकुमार बिराजत मुनिबर।
नील पीत पाथोज बीच जनु दिनकर।।
काकपच्छ रिवि परसत पानि सरोजनि।
लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि।६४।
(छंद)
मनसिज मनोहर मधुर मूरति कस न सादर जोवहू।
बिनु काज राज समाज महुँ तजि लाज आपु बिगोवहू।।
सिष देइ भूपति साधु भूप अनूप छबि देखन लगे।।
रघुबंस कैरव चंद चितइ चकोर जिमि लोचन लगे।८।
पुर नर नारि निहारहिं रघुकुल दीपहिं।
दोषु नेहबस देहिं बिदेह महीपहिं।६५।
एक कहहिं भल भूप देहु जनि दूषन।
नृप न सोह बिनु नाक बिनु भूषन।।
हमरें जान जनेस बहुत भल कीन्हेउ।
पन मिस लोचन लाहु सबन्हिं कहँ दीन्हेउ।।
अस सुकृती नरनाहु जो मन अभिलाषिहि।
सो पुरइहिं जगदीस परज पन राखिहि।।
प्रथम सुनत जो राउ राम गुन-रूपहिं।
बोलि ब्यालि सिय देत दोष नहिं भूपहिं।।
अब करि पइज पंच महँ जो पन त्यागै।
बिधि गति जानि न जाइ अजसु जग जागै।।
अजहुँ अवसि रघुनंदन चाप चढ़ाउब।
ब्याह उछाह सुमंगल गाउब।।
लागि झरोखन्ह झाँकहिं भूपति भामिनि।
कहत बचन रद लसहिं दमक जनु दामिनि।७२।
(छंद)
जनु दमक दामिनि रूप रति मद निदरि सुंदरि सोहवीं।
मुनि ढिग देखाए सखिन्ह कुँवर बिलोकि छबि मन
मोहहीं।।
सिय मातु हरषी निरखि सुषमा अति अलौकिक रामकी।
हिय कहति कहँ धनु कुँअर कहँ बिपरीत गति बिधि बाम
की।९।
मंगल भूषन बसन मंजु तन सोहहीं।
देखि मूढ़ महिपाल मोह बस मोहहिं।८१।
रूप रासि जेहि ओर सुभायँ निहारइ।
नील कमल सर श्रेनि मयन जनु डारइ।।
छिनु सीतहिं छिनु रामहि पुरजन देखहिं।
रूप् सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं।।
राम दीख जब सीय सीय रघुनायक ।
दोउ तन तकि तकि मयन सुधारत सायक।।
प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिं।
जनु हिरदय गुन ग्राम थूनि थिर रोपहिं।।
राम सीय बय समौ सुभाय सुहावन।
नृप जोबन छबि पुरइ चहत जनु आवन।।
सो छबि जाइ न बरनि देखि मनु मानै।।
सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै।।
तब बिदेह पन बंदिन्ह प्रगट सुनायउ।
उठे भूप आमरषि सगुन नहिं पायउ।८८।
(छंद-)
नहिं सगुन पायउ रहे मिसु करि एक धनु देखन गए।
टकटोरि कपि ज्यों नारियलु, सिरू नाइ सब बैठत भए।।
एक करहिं दाप, न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरैं।
नृप नहुष ज्यों सब कें बिलोकत बुद्धि बल बरबस
हरै।११।
धनुर्भंग
देखि सपुर परिवार जनक हिय हारेउ।
नृप समाज जनु तुहिन बनज बन मारेउ।८९।
कौसिक जनकहिं कहेउ देहु अनुसासन।
देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन।।
मुनिबर तुम्हरें बचन मेरू महि डोलहिं।
तदपि उचित आचरत पाँच भल बोलहिं।।
बानु बानु जिमि गयउ गवहिं दसकंधरू।
को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरू।।
पारबती मन सरिस अचल धनु चालक।
हहिं पुरारि तेउ एक नारि ब्रत पालक।।
सो धनु कहिय बिलोकन भूप किसोरहि।
भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहिं।।
रोम रोम छबि निंदति सोभ मनोजनि।
देखिय मूरति मलिन करिय मुनि सो जनि।
मुनि हँसि कहेउ जनक यह मूरति सोहइ।
सुमिरत सकृत मोह मल सकल बिछोहइ।९६।
(छंद)
सब मल बिछोहनि जानि मूरति जनक कौतुक देखहू।
धनु सिंधु नृप बल जल बढ़यो रघुबरहि कुंभज लेखहू।।
सुनि सकुचि सोचहिं जनक गुर पद बंदि रघुनंदन चले।
नहिं हरष हृदय बिषाद कछु भए सगुन सुभ मंगल भले।१२।
बरिसन लगे सुमन सुर दुंदुभि बाजहिं।
मुदित जनक, पुर परिजन नृपगन लाजहिं। ९७।
महि महिधरनि लखन कह बलहि बढ़ावनु ।
राम चहत सिव चापहिं चपरि चढ़ावनु।।
गए सुभायँ राम जब चाप समीपहि।
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि।।
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ।।
होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहिं।
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि।।
धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन।
बरू किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन।।
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ।
धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ।।
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ।१०४।
( छंद)
गंजेउ सो गर्जेउ घोर धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे।
रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे।। |
हित मुदित अनहित रूदित मुख छबि कहत कबि धनु जाग
की।
जनु भोर चक्क चकोर कैरव सघन कमल तड़ाग की।१३।
नभ पुर मंगल गान निसान गहागहे।
देखि मनोरथ सुरतरू ललित लहालहे।१०५।
तब उपुरोहित कहेउ सखीं सब गावन।
चलीं लेवाइ जानकहिं भा मन भावन।।
कर कमलनि जयमाल जानकी सोहइ।
बरनि सकै छबि अतुलित अस कबि कोहइ।।
सीय सनेह सकुच बस पिय तन हेरइ।
सुरतरू रूख सुरबेलि पवन जनु फेरइ।।
लसत ललित कर कमल माल पहिरावत।
काम फंद जनु चंदहिं बनज फँसावत।।
राम सीय छबि निरूपम निरूपम सो दिनु ।
सुख समाज लखि रानिन्ह आनँद छिनु-छिनु।।
प्रभुहि भाल पहिराइ जानकिहि लै चलीं।
सखीं मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कलीं।।
बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कहि जय जए।
सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पहँ गए।११२।
(छंद)
गए राम गुरू पहिं राउ रानी नारि-नर आनँद भरे।
जनु तृषित करि करिनी निकर सीतल सुधासागर परे।।
कौसिकहि पूजि प्रसंसि आयसु पाइ नृप सुख पायऊ।
लिखि लगन तिलक समाज सजि कुल गुरहिं अवध पठायऊ।१४।
विवाह की तैयारी
गुनि गन बोलि कहेउ नृप माँडव छावन।
गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन।११३।
सीय गीत हित पूजहिं गौरि गनेसहि।
परिजन पुरजन सहित प्रमोद नरेसहि।।
प्रथम हरदि बंदन करि मंगल गावहिं
करि कुल रीति कलम थपि तुलु चढ़ावहिं।।
गे मुनि अवध बिलोकि सुसरित नहायउ।
सतानंद सत कोटि नाम फल पायउ।।
नृप सुनि आगे आइ पूजि सनमानेउ।
दीन्हि लगन कहि कुसल राउ हरषानेउ।।
सुनि पुर भयउ अनंद बधाव बजावहिं।
सजहिं सुमंगल कलम बितान बनावहिं।।
राउ छाँड़ि सब काज साज सब साजहिं।
चलेउ बरात बनाइ पूजि गनराजहिं।।
बाजहिं ढोल निसान सगुन सुभ पाइन्हि।
सि नैहर जनकौर नगर नियराइन्हि।१२०।
(छंद )
नियरानि नगर बरात हरषी लेन अगवानी गए।
देखत परस्पर मिलत मानत प्रेम परिपूरन भए।।
आनंदपुर कौतुक कोलाहल बनत सो बरनत कहाँ।
लै दियो तहँ जनवास सलि सुपास नित नूतन जहाँ।१५।
गे जनवासहिं कौसिक राम लखन लिए।
हरषे निरखि बरात प्रेम प्रेमुदित हिए।१२१।
हृदयँ लाइ लिए गोद मोद अति भूपहि।
कहि न सकहिं सत सेष अनंद अनूपहिं।।
रायँ कौसिकहि पूजि दान बिप्रन्ह दिए।
राम सुमंगल हेतु सकल मंगल किए।।
ब्याह बिभूषन भूषित भूषन भूषन।
बिस्व बिलोचन बनज बिकासक पूषन।।
मध्य बरात बिराजत अति अनुकूलेउ।।
मनहुँ काम आराम कलपतरू फूलेउ।।
पठई भेंट बिदेह बहुत बहु भाँतिन्ह।
देखत देव सिहाहिं अनंद बसरातिन्ह।।
बेद बिहित कुलरीति कीन्हि दुहुँ कुलगुर।
पठई बोलि बरात जनक प्रमुदित मन।।
जाइ कहेउ पगु धारिअ मुनि अवधेसहि।
चले सुमिरि गुरू गौरि गिरीस गनेसहि।१२८।
(छंद)
चले सुमिरि गुर सुर सुमन बरषहि परे बहुबिधि
पावड़े।
सनमानि सब बिधि जनक दसरथ किये प्रेम कनावड़े।।
गुन सकल सम सम समधी परस्पर मिलन अति आनँद लहे।
जय धन्य जय-जय धन्य-धन्य बिलोकि सुर नर मुनि
कहे।१६।
राम-विवाह
तीनि लोक अवलोकहिं नहिं उपमा कोउ।
दसरथ जनक समान जनक दसरथ दोउ।१२९।
सजहिं सुमंगल साज रहस रनिवासहि।
गान करहिं पिकबैनि सहित परिहासहि।१३०।
उमा रमादिक सुरतिय सुनि प्रमुदित भई।।
कपट नारि बर बेष बिरच मंडम गई।।
मंगल आरति साज बहरि परिछन चलीं।
जनु बिगसीं रबि उदय कनक पंकज कलीं।।
नख सिख संुदर राम रूप जब देखहिं।
सब इंद्रिन्ह महँ इंद्र बिलोचन लेखहिं।।
परम प्रीति कुलरीति करहिं गज गामिनि।
नहिं अघाहिं अनुराग भाग भरि भामिनि।१३४।
नेगाचारू कहँ नागरि गहरू न लावहिं।
निरखि निरखि आनंदु सुलोचनि पावहिं।।।
करि आरती निछावरि बरहिं निहारहिं ।
प्रेम मगन प्रमदागन तन न सँभारहिं।१३६।
(छंद)
नहिं तन सम्भारहिं छबि निहारहिं निमिष रिपु जनु
रनु जए।
चक्रवै लोचल राम रूप सुराज सुख भागी भए।।
तब जनक सहित समाज राजहिं उचित रूचिरासन दए।
कौसिक बसिष्ठहि पूजि राउ दै अंबर नए।१७।
देत अरघ रघुबीरहि मंडप लै चलीं।
करहिं सुमंगल गान उमगि आनँद अलीं।१३७।
बर बिराज मंडप महँ बिस्व बिमोहइ।
ऋतु बसंत बन मध्य मदनु जनु सोहइ।।
कुल बिबहार बेद बिधि चाहिय जहँ जस।
उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस।।
बरहि पूजि नृप दीन्ह सुभग सिंहासन।
चलीं दुलहिनिहि ल्याइ पाइ अनुसासन।।
जुबति जुत्थ महँ सीय सुभाइ बिराजइ।
उपमा कहत लजाइ भारती भाजइ।।
दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर हरषहिं ।
छिनु छिनु गान निसान सुमन सुर बरषहिं।।
लै लै नाउँ सुआसिनि मंगल गावहिं।
कुँवर कुँवरि हित गनपति गौरि पुजावहिं।।
अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेउ।
कन्या दान बिधान संकलप कीन्हेउ।१४४।
(छंद)
संकल्पि सि रामहि समरपी सील सुख सोभामई।
जिमि संकरहि गिरिराज गिरिजा हरिहि श्री सागर दई।।
सिंदूर बंदन होम लावा होन लागीं भाँवरी।
सिल पोहनी करि मोहनी मनहर्यो मूरति साँवरी।१८।
एहि बिधि भयो बिवाह उछाह तिहूँ पुर।
देहिं असीस मुनीस सुमन बरषहिं सुर।१४५।
मन भावत बिधि कीन्ह मुदित भामिनि भई।
बर दुलहिनिहि लवाइ सखीं कोहबर गई।।
निरखि निछावर करहि बसन मनि छिनु छिनु।
जाइ न बरनि बिनोद मोदमय सो दिनु।।
सिय भ्राता के समय भोम तहँ आयउ।
दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ।।
चतुर नारि बर कुँवरिहि रीति सिखावहिं।
देहिं गारि लहकौरि समौ सुख पावहिं।।
जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह।
जीति हारि मिस देहिं गारि दुहु रानिन्ह।।
सीय मातु मन मुदित उतारति आरति।
को कहि सकइ अनंद मगन भइ भारति।।
जुबति जूथ रनिवास रहस बस एहि बिधि।
देखि देखि सिय राम सकल मंगल निधि।१५२।
(छंद)
मंगल निधान बिलोकि लोयन लाह लूटति नागरीं।
दइ जनक तीनिहुँ कुँवर बिबाहि सुनि आनँद भरीं।।
कल्यान मो कल्यान पाइ बितान छबि मन मोहई।
सुरधेनु ससि सुरमनि सहित मानहुँ कलप तरू सोहई।१९।
जनक अनुज तनया दोउ परम मनोरम।
जेठि भरत कहँ ब्याहि रूप रति सय सम।१५३।
सिय लघु भगिनि लखन कहुँ रूप उजागरि।
लखन अनुज श्रुतकीरति सब गुन आगरि।।
राम बिबाह समान बिबाह तीनिउ भए।
जीवन फल लोचन फल बिधि सब कहँ दए।।
दाइज भयउ बिबिध बिधि जाइ न सो गनि।
दासी दास बाजि गज हेम बसन मनि।।
दान मान परमान प्रेम पूरन किए।
समधी सहित बरात बिनय बस करि लिए।
गे जनवासे राउ संगु सुत सुतबहु।
जनु पाए फल चारि सहित साधन चहु।।
चहु प्रकार जेवनार भई बहु भाँतिन्ह।।
भोजन करत अवधपति सहित बरातिन्ह।।
देहि गारि बर नारि नाम लै दुहु दिसि
जेंवत बढ़्यों अनंद सुहावनि सो निसि।१६०।
(छंद)
सो निसि सोहावनि मधुर गावति बाजने बाजहिं भले।
नृप कियो भोजन पान पाइ प्रमोद जनवासेहि चले।।
नट भाट मागध सूत जाचक जस प्रतापहिं बरनहीं।।
सानंद भूसुर बृंद मनि गज देत मन करषैं नहीं।२०।
करि करि बिनय कछुक दिन राखि बरातिन्ह।
जनक कीन्ह पहुनाई अगनित भाँतिन्ह।१६१।
प्रात बरात चलिहि सुनि भूपति भामिनि।
परि न बिरह बस नींद बीति गइ जामिनि।।
खगभर नगर नारि नर बिधिहि मनावहिं।
बार बार ससुरारि राम जेहि आवहिं।।
सकल चलन के साज जनक साजत भए।।
भाइन्ह सहित राम तब भूप -भवन गए।।
सासु उतारि आरती करहिं निछावरि।
निरखि निरखि हियँ हरषहिं
सूरति करुना भरीं।
परिहरि सकुच सप्रेम पुलकि पायन्ह परीं।।
सीय सहित सब सुता सौंपि कर जोरहिं।
बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं।।
तात तजिय जनि छोह मया राखबि मन।
अनुचर जानब राउ सहित पुर परिजन।१६८।
(छंद)
जन जानि करब सनेह बलि, कहि दीन बचन सुनावहीं
अति प्रेम बारहिं बार रानी बालिकन्हि उर लावहीं।।
सिय चलत पुरजन नारि हय गय बिहँग मृग भए।।
सुनि बिनय सासु प्रबोधि तब रघुबंस मनि पितु पहिं
गए।२१।
परे निसानहिं घाउ राउ अवधहिं चले।
सुर गन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले।।१६९।।
जनक जानकिहि भेटि सिखाइ सिखावन।
सहित सचिव गुर बंधु चले पहुँचावन।।
प्रेम पुलकि कहि राय फिरिय अब राजन।
करत परस्पर बिनय सकल गुन भाजन।।
कहेउ जनक कर जोरि कीन्ह मोहि आपन।
रघुकुल तिलक सदा तुम उथपन थापन।।
बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ।
प्रभु प्रसाद जसु जानि सकल सुख पायउँ।।
पुनि बसिष्ठ आदिक मुनि बंदि महीपति।
गहि कौसिक के पाइ कीन्ह बिनती अति।।
भाइन्ह सहित बहोरि बिनय रघुबीरहि।
गदगद कंठ नयन जल उर धरि धीरहिं।।
कृपा सिंधु सुख सिंधु सुजान सिरोमनि।
तात समय सुधि करबि छोह छाड़ब जनि।।
(छंद)
जनि छोह छाड़ब बिनय सुनि रघुबीर बहु बिनती करी।
मिलि भेटि सहित सनेह फिरेउ बिदेह मन धीरज धरी।।
सो समौ कहत न बनत कछु सब भुवन भरि करुना रहे।
तब कीन्ह कोसलपति पयान निसान बाजे गहगहे।२२।
अयोध्या में आनंद
पंथ
मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिये।
डाटहिं आँखि देखाइ कोप दारून किए।१७७।
राम कीन्ह परितोष रोष रिस परिहरि।
चले सौंप सारंग सुफल लोचन करि।।
रघुबर भुज बल देखि उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सनमुख बिधि सब भाँतिन्ह।।
एहि बिधि ब्याहि सकल सुत जग जसु छायउ।
मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ।।
होहिं सुमंगल सगुन सुमन सुर बरषहिं।
नगर कोलाहल भयउ नारि नर हरषहिं।।
घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं।
बीथीं सींचि सुगंध सुमंगल गावहिं।।
चौंकैं पुरैं चारू कलस ध्वज साजहिं।
बिबिध प्रकार गहागह बाजन बाजहिं।।
बंदन वार बितान पताका घर घर।
रोपे सफल सपल्लव मंगल तरूबर।।
(छंद)
मंगल बिटप मंजुल बिपुल दधि दूब अच्छत रोचना।
भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक लोचना।।
मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल भूपति-भामिनी।
सजि साजु परिछन चलीं रामहिं मत्त कुंजर-गामिनी।२३।
बधुन सहित सुत चारिउ मातु निहारहिं।
बारहिं बार आरती मुदित उतारहिं।१८५।
करहिं निछावरि छिनु छिनु मंगल मुद भरीं।
दूलह दलहिनिन्ह देखि प्रेम पयनिधि परीं।।
देत पावड़े अरघ चलीं लै सादर।।
उमगि चलेउ आनंद भुवन भुहँ बादर।।
नारि उहारू उघारि दुलहिनिन्ह देखहिं।
नैन लाहु लहि जनम सफल करि लेखहिं।।
भवन आनि सनमानि सकल मंगल किए।
बसन कनक मनि धेनु दान बिप्रन्ह दिए।।
जाचक कीन्ह निहाल असीसहिं जहँ तहँ।
पूजे देव पितर सब राम उदय कहँ।
नेगचार करि दीन्ह सबहिं पहिरावनि।
समधी सकल सुआसिनि गुरतिय पावनि।।
जोरीं चारि निहारि असीसत निकसहिं।
मनहुँ कुमुद बिधु -उदय मुदित मन बिकसहिं।।१९२।।
बिकसहिं कुमुद जिमि देखि बिधु भइ अवध सुख सोभामई ।
एहि जुगुति राम बिबाह गावहिं सकल कबि कीरति नई।।
उपबीत ब्याह उछाह जे सिय राम मंगल गावहीं।
तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदित पावहीं।२४।
श्रीजानकी जी की स्तुति
भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी जन हितकारी भयहारी।
अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी जनकदुलारी सुकुमारी।।
सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन कोटि हुताशन
द्युतिकारी।
सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै निज -निज कारज
करधारी।।
सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना चढ़े बिमाना समुदाई।
बरषहिं बहुफूला मंगल मूला अनुकूला सिय गुन गाई।।
देखहिं सब ठाढ़े लोचन गाढ़ें सुख बाढ़े उर अधिकाई।
अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं पायन्ह परहीं
हरषाई।।
ऋषि नारद आये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृप
ज्ञानी।
सीता अस नामा पूरन कामा सब सुखधामा गुन खानी।।
सिय सन मुनिराई विनय सुनाई सतय सुहाई मृदुबानी।
लालनि तन लीजै चरित सुकीजै यह सुख दीजै नृपरानी।।
सुनि मुनिबर बानी सिय मुसकानी लीला ठानी सुखदाई।
सोवत जनु जागीं रोवन लागीं नृप बड़भागी उर लाई।।
दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ यह सुख लायउँ
मनलाई।
अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी बरनि सुचेरी सिर
नाई।।
दोहा- निज इच्छा मखभूमि ते प्रगट भईं सिय आय।
चरित किये पावन परम बरधन मोद निकाय।।
१९ मार्च २०१२ |