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विनोद पांडेय के दोहे

जन्म- १ जनवरी १९८४ को वाराणसी में।
शिक्षा- एम. सी. ए. (जे. एस. एस., नोएडा, उत्तर प्रदेश )

कार्यक्षेत्र-
दोहा, गीत, ग़ज़ल, कुण्डलिया, सवैया, लघुकथा एवं व्यंग्य लेखन आदि साहित्य की विधाओं में सृजन। आकाशवाणी सहित कई टी.वी. चैनलों पर काव्य प्रस्तुती एवं सैकड़ों से अधिक कवि सम्मेलनों में पाठ।

प्रकाशित कृतियाँ-
देश के पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रचनाओं का प्रकाशन तथा विभिन्न संकलनों में रचनाएँ संकलित। हरिभूमि दैनिक समाचार पत्र में कई हास्य-व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन। काव्य-उपवन के नाम से संयुक्त संकलन।

सम्मान व पुरस्कार-
विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा आयोजित अंतराष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता २०१३ में भारत की ओर से प्रथम पुरस्कार। अनेक कवि सम्मेलनों और काव्य गोष्ठियों में पुरस्कृत एवं सम्मानित।

संप्रति-
सीनियर सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में नोएडा में कार्यरत ।

ईमेल- voice.vinod@gmail.com

  मंदिर में दे हाजिरी

मंदिर में दे हाजिरी, रहे दशा अनुकूल
माँ के हिस्से शूल है, गैरों के हित फूल

सब अपने में लीन हैं, ऐसे हैं हालात
जैसे तैसे काटते, बाबू जी दिन-रात।

परिवर्तन के दौर का, यह कैसा दस्तूर
एक जगह रहते मगर, दिल हैं कोसो दूर।

सबसे रो कर कह रहे, पीपल, बरगद, नीम
सिर्फ़ प्रदर्शन ही बना, हरियाली की थीम।

हरियाली अब खो गई, दुर्लभ तरु की छाँव
पत्ते-पत्ते चीखते, सारी गलियाँ गाँव।

सब कागज के फूल से, सजा रहे घर-द्वार
गेंदा और गुलाब की, चर्चा है बेकार।

रक्षक ही भक्षक बने, किसे सुनाएँ पीर
कुछ घर में भूखे मरे, गटक रहे कुछ खीर।

प्रभु ने हमको जो दिया, उसका कर उपभोग
उतना ही मिलता यहाँ, जितने का है योग।

हवा यहाँ दूषित हुई, मिला विषैला नीर
ऐसे में कैसे रहे, मानव स्वस्थ शरीर।

देख भक्त की भावना, हैरत में भगवान
दृष्टि मूर्ति पर है मगर, जूते पर है ध्यान।

धन के आगे है झुका, पर्वत सा ईमान
भौतिक युग में आ गया, ठेले पर इंसान।

२३ फरवरी २०१५

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