सनातन कुमार
वाजपेयी 'सनातन'
के दोहे | |
दाँव-पेंच के जाल में
दाँव पेंच के जाल में, उलझा आज
प्रकाश।
भीषण गर्मी शीष पर, लुप्त हुआ मधुमास।।
रे मयूर क्यों नाचता, नभ में
वारिद पेख।
ये तो स्वार्थी हो गए, नहीं दया की रेख।।
पी पी क्यों तू रट रहा, स्वाति
बूँद की आस।
रे चातक सावन नहीं, यह तो ग्रीष्म मास।।
काँव काँव कर काग क्यों, करता
नींद हराम।
पावस तो रीती गई, अब सिर पर है घाम।।
इस दुपहर की धूप पर, मत कर दिन
अभिमान।
कुछ क्षण में हो जाएगा, इसका भी अवसान।।
धधक रहे धरती गगन, बिछे हुए
अंगार।
अब कैसे कलियाँ करें, शादी का शृंगार।।
२२ जून २००९ |