दोहे
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे
आँसू एक।
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख।।
देखा तेरे शहर को, भीड़ भीड़ ही
भीड़।
तिनके ही तिनके मिले, मिला न कोई नीड़।।
कतरा-कतरा घुल रही, घर-घर बूढ़ी
आँख।
बेटे-बहुओं को लगे, सुरखाबों के पांख।।
सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या
नाता क्या प्यार।
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार।।
मैंने देखा देश का, बड़ा
सियासतदान।
न चेहरे पर आँख थी, न चेहरे पर कान।।
जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क
हज़ार।
तब जाकर मैंने किए, काग़ज़ काले चार।।
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन
हथियार।
वक्त करेगा फ़ैसला, कोन हुआ बेकार।।
सब-सा दिखना छोड़कर, खुद-सा
दिखना सीख।
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक।।
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी
की लोच।
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।।
लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना
मशाल।
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल।।
आसमान के जोश में, रख धरती का
होश।
कटकर अपने मूल से, बढ़ा न कोई कोश।।
जिसके उर में आग है, उसके सुर
में राग।
सूरज सदा जगाएगा, जाग भले ना जाग।।
जीता तो तेरी धरा, हारा ते
आकाश।
शंख फूँक अब युद्ध का, काट भरम का पाश।।
मैंने 'है' को 'है' कहा, नीयत
रखकर नेक।
अब यह तेरा काम है, सही-ग़लत तू देख।। |