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जय चक्रवर्ती के दोहे

 

  राजनीति के दोहे

ताकि भोगते रह सकें, सिंहासन का संग।
स्वयं युधिष्ठर रंग गये दु:शासन के रंग।।

क्या कोई देखे वहाँ, सपनों की तस्वीर।
जुगनू लिखते हों जहाँ, सूरज की तक़दीर।।

छौनों के सपने छिने, गौरेयों के नीड़।
लाल किला बुनता रहा, वादे, भाषण, भीड़।।

भूख लपेटे पेट पर, और होंठ पर प्यास।
पंख-नुचे सपने लिये, सिसक रहा इतिहास।।

सरे आम भूने गये, नित असहाय, अबोध।
दिल्ली रही बघारती, एक नपुंसक क्रोध।।

राजा जी तुम भोगते, हर सुविधा का भोग।
किंतु हमारे वास्ते, नये-नये आयोग।।

बुलबुल कारावास में, पहरे पर सैयाद।
अब होने को क्या बचा, यह होने के बाद।।

 

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