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डॉ. सुरेन्द्र गंभीर

यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया में ३६ वर्ष सेवा करने के बाद अब सेवा से निवृत्त। इसके पूर्व कॉरनेल यूनिवर्सिटीऔर यूनिवर्सिटी ऑफ़ विसकांसिन में भी पढ़ाया। विषय था - भाषा-विज्ञान।

भारतीय भाषाओं और हिन्दी का विशेष पारायण। शोध का विशेष का क्षेत्र रहा - कैरिबियन क्षेत्र में गयाना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, प्रशांत महासागर में फ़िजी, हिन्द महासागर में मारीशस और अमेरिका। अनेक राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय समितयों के अध्यक्ष और बीज-वक्ता। प्रकाशनों में में छः पुस्तकें और १०० से ऊपर शोध-लेख प्रकाशित। भारतीय भाषाओं की वर्तमान और भविष्य की स्थिति को लेकर विशेष विचार-मंथन। अमेरिका में दूसरी पीढ़ी के लोगों में अंग्रेज़ी से इतर दूसरी भाषा के अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए शिविरों का आयोजन।

संप्रति भारतीय व्यवसाय में भारतीय भाषाओं की स्थिति और उपयोगिता पर शोध जारी। आजकल अमेरिका में सपरिवार निवास। भारत और भारत-संबंधी गतिविधियों से दिनरात का लगाव।

ईमेल- surengambhir@gmail.com  

 

 

शीत ऋतु की एक सुबह

पौ फट चुकी थी
रात ढल चुकी थी
और पूर्वी क्षितिज पर
कोई गोलाकार
अग्नि की शकल का
कोई बड़ा शकल सा
या पुंजीभूत आलोक सकल था
उठ रहा था
दबे पाँव से
उदयाचल के पीछे से
और –
तरु की शाखाएं कुछ लगती काली सी
शांत निरत
पर सतत
प्रतीक्षा में रत
रोमांचित थीं
कि अभी आएँगे
उसके प्रेमीजन के
झुंडों के झुंड
और बनाएँगे
इसके अंक को पर्यंक
और हिला देंगे
अपनी पावन लीला से
इसका अंग अनंग
और मिटा देंगे
अपनी श्रुति मधुरा वाणी से
अपने आलिंगन से
इसकी उत्कंठा को
जो बढ़ गई थी बहुत अधिक
खा कर टक्कर
शीत लहरों के
धुंध की घनता से
बढ़ चली थी
नीरवता की निःस्वनता
दृष्टि पारगा मुश्किल थी
पर कर्ण भी पड़े थे
अननुभूत
अनुस्यूत जड़ता से विकलता से–
जंगल में मंगल क्या
लगता था मानो
मंगल में जंगल हो–
सारा नगर बना सुनसान
केवल पाने को परित्राण
शीतल लहरों से
लख कर
ध्वनि–शून्यता
निःस्तब्धता
सकल नगर डगर की
गिरि गह्वर की
तरुवर और सरोवर सर की
तिर्यंच वृंद के मनहर रव की
लगता था मानो
जगती के मन बुद्धि का
सारा अंधियारा
हो गया मूर्तिमान
धुंध में आकर
और बैठा है मुनि
समाधि में शांत चित्त से
मौन भाव से
कर के परिरम्भन
निज दयित ब्रह्म काॐ

१ मई २००६

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