बृजेंद्र सागर
(ऑकलैंड
न्यूज़ीलैंड से)
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दो कविताएँ
तब और अब
तब हमें पढ़ाया जाता था
कि मंगोल बर्बर थे
मुगल बर्बर थे
कि अंग्रेज़ बर्बर थे
अब हमें दिखाया जाता है
शहर–शहर मुहल्ले–मुहल्ले
कि हमारी बर्बरता का तो सानी नहीं कोई
कि शर्मसार हैं हम अपने अतीत पर
अपने उपनिषदों पर, बुद्ध पर, कबीर पर
जलते हुए घरों और सड़ती हुई लाशों के मध्यस्थ
भारत मेरे का वर्तमान समय हो रहा है।
अचेतनता का सफ़र
पहाड़ी गुफ़ा का सीलन भरा ठंडा अंधापन
सिर से टपकती हुई पानी की बूंदों का आर्तनाद
वर्षों दूर से आती हुई कदमों की आहटें
न पीछे हटने देती हैं न आगे बढ़ने देती हैं
फिर जब कोई भय अनजाना सा–
कुंडली मार कर विष–दंत उड़ा देता है
ज़हर हादसों का व्यक्तित्व पर मेरे–
बढ़ता जाता है
और उन मौत से ठंडे अंधेरों से डर कर–
पागल चीखें मेरी निकलती हैं
और हाथ जब टकराते हैं
गुफ़ा की सीलन भरी छतों से
लिज़लिज़े स्पर्श से बचने की छटपटाहट में–
स्वयं को बौना किए जाता हूं
इस अचेतन विश्व के कैन्वस में–
कितनी ही ऐसी गुफ़ाएं हैं
जहां नित दिन हम सब–
ढकेले जाते हैं
बचपन के अपूर्ण या अनजिए क्षणों का मूल्य–
इन अंधेरी गुफ़ाओं की उम्रकैदों में चुकाना पड़ता है
और हम–
अपना जीवन न जी कर–
इन अंधी गुफ़ाओं का जीवन ढोते हैं
इक गुफ़ा से निकलते हैं और दूसरी में कदम रखते हैं
और भय की छतों से बचने के लिए
जीवन भर स्वयं में बौनापन बढ़ाते जाते हैं
और इसीलिए अधिकतर शायद–
सूनेपन की मृत्यु पाते हैं
जीवन बन के रह जाता है बस–
अंधेरी कंदराओं का भयग्रस्त
लंबा सफ़र
बिखरता हुआ टूटता हुआ।
१ जून २००६ |