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फूल ने सीखा
 
 
सीखते हैं अधर हर क्षण मुस्कुराना
फूल की है नियति गुलदस्ते सजाना

फूल डाली से विलग अब हो गया है
वृंत भी पिछलग्गुओं सा लग लिया है
वृंत ने फिर इस तरह कोशिश अथक की,
फूल का जो शीश भी उन्नत किया है

सभ्यता का मान रखना खूब सीखा
सिर झुकाकर द्वार तक करबद्ध जाना

है सदा कोमल भले हो वनकुसुम ही
समय जीवन का मिले यदि अल्पतम ही
फूल ने तो हर विषम ऋतु झेल ही ली
कौन कहता है, मिला है उसे सम ही

भले मुरझाना लिखा विधिलेख में हो
फूल ने जाना हमेशा खिलखिलाना

फूल नाज़ुक था, नहीं नखरा दिखाया
रौब भी कब रूप का उसने जताया
धूप की गर्मी भले उसने सहन की
वो झुलसकर भी कभी क्या तिलमिलाया

सहन करने में लगा हर परिस्थिति को
फूल ने सीखा नहीं दामन बचाना

प्यार जिसने भी किया बस दिया धोखा
चोंच मारी देह में खोला झरोखा
क्या कभी आभार भी अभिव्यक्त करता
जिस भ्रमर ने उदर भर मधुकोष सोखा

वह न अपने को बचाना सीख पाया
फूल ने सीखा सदा सरबस लुटाना

एक गुलदस्ता विविधवर्णी सजाकर
फूल ने वैशिष्ट्य निज रक्खा बचाकर
फूल कब अपशब्द ही लाया उठाकर
या कि गाली दी अधर निचला चबाकर

मानने के तो न था अनुकूल तो भी
फूल ने सीखा हमेशा मान जाना

नाज़ुकी की भूमिका ही बस अदा की
फूलगुच्छों ने नमस्ते ही सदा की
शुभ शकुन का ही सदा स्वागत किया है
हर तरह से अपशकुन की ही विदा की

गंध के औ वर्ण के सान्निध्य में ही
फूल ने सीखा सदा जीवन बिताना

- पंकज परिमल
१ जून २०१८

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