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फूल तुम्हें मैं कहाँ
सजाऊँ
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फूल तुम्हें मैं कहाँ सजाऊँ?
जहाँ सदा मुस्काता पाऊँ
सोचूँ यही
तुम्हें चढ़ाऊँ देव चरण में
बाद प्रवाहित कर दूँ जल में
गलकर होगा अंत तुम्हारा
पानी दूषित होगा पल में
ना, ना, नहीं
सुंदरता के कदम तले गर
तुम्हें सजाऊँ सुमन, बिछाकर
कुचल जाय सौंदर्य तुम्हारा
होगा यह अपमान सरासर
बिलकुल नहीं
गजरे में जो करूँ सुशोभित
महतों का माला से स्वागत
मगर सुमन, मैं नहीं चाहती
फेंके जाओ बनो तिरस्कृत
ऊँ हूँ... नहीं
यदि फैलाऊँ वीरों के पथ
घनी धूल से होगे लथपथ
हश्र तुम्हारा देख देख कर
वीरों का मन होगा विचलित
उफ्फ़ोह! नहीं
तुम तो बने रहो बगिया में
महको इस सुंदर दुनिया में
वंश बढ़ाओ, परिवर्धित हो
शुद्ध हवाएँ बहें फिजा में
चाहूँ यही
- कल्पना रामानी
१ जून २०१८ |
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