डॉ. शरद सिंह
जन्म :
२९ नवंबर १९६३, पन्ना(मध्य प्रदेश)
शिक्षा :
एम. ए.(प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व) स्वर्ण
पदक प्राप्त, एम. ए. (मध्यकालीन भारतीय इतिहास), पीएच. डी.
(खजुराहो की मूर्तिकला का सौंदर्यात्मक अध्ययन)
प्रकाशित
कृतियाँ : एक उपन्यास, चार कहानी संग्रह, दो काव्य संग्रह,
तीन शोध ग्रंथ, साक्षरता विषयक दस कहानी संग्रह, मध्य प्रदेश
के आदिवासियों पर दस पुस्तकें, एक रेडियो नाटक संग्रह। यथा-
'पिछले पन्ने की औरतें' (उपन्यास), 'बाबा फ़रीद अब नहीं आते'
(कहानी संग्रह), 'तीली-तीली आग' (कहानी संग्रह), 'गील्ला हनेरा'
(पंजाबी में अनूदित कहानी संग्रह), 'राख तरे के अंगरा'
(बुंदेली कहानी संग्रह), साक्षरता विषयक दस कहानी संग्रह, मध्य
प्रदेश की आदिवासी जनजातियों के जीवन पर दस पुस्तकें, खजुराहो
की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व (शोधग्रंथ), 'आधी दुनिया
पूरी धूप' (रेडियो नाटक संग्रह), न्यायालयिक विज्ञान की नयी
चुनौतियाँ (शोध ग्रंथ), महामति प्राणनाथ: एक युगांतरकारी
व्यक्तित्व (शोध ग्रंथ)।
अनुवाद :
कहानियों का पंजाबी, उर्दू, गुजराती, उड़िया एवं मलयालम भाषाओं
में अनुवाद प्रकाशित।
प्रसारण :
रेडियो, टेलीविजन एवं यूनीसेफ के लिए विभिन्न विषयों पर
धारावाहिक एवं पटकथा लेखन। शैक्षणिक विषयों पर फ़िल्म हेतु
पटकथा लेखन एवं फ़िल्म-संपादन।
विविध :
शैक्षिक सहायक पुस्तकों में कहानियाँ सम्मिलित तथा विभिन्न
भारतीय विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों में उल्लेख।
पुरस्कार एवं
सम्मान :
गृह मंत्रालय भारत सरकार का 'राष्ट्रीय गोवंद वल्लभ पंत
पुरस्कार' पुस्तक 'न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियों पर',
श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन स्मृति पुरस्कार एवं 'दाजी सम्मान' -
साहित्यसेवा हेतु, कस्तुरीदेवी चतुर्वेदी स्मृति लोकभाषा
सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण तथा 'लीडिंग लेडी ऑफ
मध्यप्रदेश' सम्मान।
सदस्य :
मध्य प्रदेश लेखक संघ एवं जिला पुरातत्व संघ।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन एवं दलित, शोषित स्त्रियों के
पक्ष में कार्य।
ईमेल :
sharadsingh1963@yahoo.co.in
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एक लड़की चार
ग़ज़लें
एक
मेरी आँखों से ये किसके आँसू बहते रहते हैं
बेहद अपनी-अपनी-सी वे एक कहानी कहते हैं।
उसका दिल था तितली जैसा, उसकी आँखें थीं हिरनी
उस चंचल लड़की के सपने अकसर आते रहते हैं।
वह बिंदास हवा का झोंका, उसने खुलकर प्यार किया
उसकी जैसी चाहत वाले दुनिया का ग़म सहते हैं।
जिस दिन से वो रूठी मुझसे, मैंने शीशा तोड़ दिया
मैं ही थी वो, कहने वाले मुझसे कहते रहते हैं।
समय गुज़रते किसने देखा, देखा है बस, परिवर्तन
साथ समय के मौसम भी तो सदा बदलते रहते हैं।
दो
मेरे दिल में रहती थी जो, कहाँ गुमी है वो लड़की
जीवन में धुंधलापन छाया, धुआँ हुई है वो लड़की।
उसके हाथों की रेखाएँ सपने बुनती रहती थीं
सबने समझा क़िस्मत की तो बहुत धनी है वो लड़की।
उसके कंगन, उसके झुमके, ढाई आखर पर बजते
सब कहते थे - सात सुरों में ढली हुई है वो लड़की।
दुनिया भर की चिंताओं से सदा बेख़बर रहती थी
लगता है उन चिंताओं से त्रस्त हुई है वो लड़की।
खुद के भीतर खूब तलाशा, मुझे कहीं भी मिली नहीं
कहते हैं सब – मेरे भीतर छुपी हुई है वो लड़की।
तीन
होंठों पर हँसती दिखती है, पलकों में रोती लड़की
सपनों की झालर बुनती है, तनिक बड़ी होती लड़की।
गुड्डे-गुड़िया, खेल-खिलौने, पल में ओझल हो जाते
अपने छोटे भाई-बहन को बाँहों में ढोती लड़की।
चूल्हा, चौका, कपड़े, बरतन, बचपन से ही जुड़ जाते
परिपाटी की बंद सीप में, क़ैद हुई मोती-लड़की।
इसकी पत्नी, उसकी बेटी, जाने क्या-क्या कहलाती
नाते-रिश्ते, संबोधन में खुद को है खोती लड़की।
दिन का सूरज, रात के तारे या सपनों का शहज़ादा
सारी दुनिया पा लेती है, नींद भरी सोती लड़की।
चार
चूल्हे के आगे बैठी है, धुआँ-धुआँ-सी जो लड़की
उसकी भीगी आँखें कहतीं- फिर सपनों को बो लड़की।
मुट्ठी भर आगे आती हैं, बाकी का तो पता नहीं
अगर ताब न हो तुझमें तो, तू भी जाकर खो लड़की।
सब के भीतर है इक ज्वाला, सबके भीतर है इक आग
अपने को पहचानो तुम भी, अपनी चाह कहो लड़की।
बस्ता, कॉपी और किताबों से नाता-रिश्ता कर लो
वरना दबी, छुपी-सी रह कर, दोयम बनी रहो लड़की।
उसका नन्हा दिल कहता है, उसके कानों में अकसर
चाहे जो भी मुश्किल आए, रुकना नहीं, सुनो लड़की।
१४ जनवरी २००८
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