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प्रयाग शुक्‍ल

प्रयाग शुक्ल (जन्म १९४०) हिन्दी के कवि, कला-समीक्षक, अनुवादक एवं कहानीकार हैं।

कार्यक्षेत्र-
देश-विदेश की विभिन्न कला-प्रदर्शनियों के बारे में लेखन और प्राय: सभी प्रमुख भारतीय कलाकारों से भेंटवार्ताएँ, फ़िल्म और नाट्य समीक्षाएँ प्रकाशित। १९६३-६४ में 'कल्पना' (हैदराबाद) के सम्पादक मंडल में रहे और जनवरी १९६९ से मार्च १९८३ तक 'दिनमान' के सम्पादकीय विभाग में, इसके बाद दैनिक 'नवभारत टाइम्स' के सम्पादकीय विभाग में। ललित कलाअकादमी की हिन्दी पत्रिका 'समकालीन कला' के अतिथि सम्पादक रहे। संप्रति वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली की पत्रिका रंग प्रसंग के संपादक हैं।

प्रमुख कृतियाँ-
कविता संभव (१९७६), यह एक दिन है (१९८०), रात का पेड़, अधूरी चीज़ें तमाम (१९८७), यह जो हरा है (१९९०)।

सम्मान व पुरस्कार-
उन्हें साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार, शरद जोशी सम्मान एवं द्विजदेव सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है।

` वर्षों के बाद एक उद्यान ... कुछ दूर से

एक

झर गए जो फूल वर्षा में
गए हैं दूर तक रंग पथ-
तनिक अरूणाभ

सहज यह एक सुंदर दृश्‍य-
झरकर, कर गए निर्मित
विलग हो गईं पंखुडि़यां
रहीं दिख उलझकर जल में
कि जैसे उभर आई हों
किसी दिन की, गईं वे भूल
स्‍मृतियां-

झरे हैं फूल वर्षा में!


दो

बाढ़-सी उमड़ी वनस्‍पतियां-
जड़ों तक सिंची, कितनी आर्द्र
कितनी हरी
कितनी सघन!
ऊपर घन
सभी काले, बनाते
लहर-सी अपनी
कहीं से कहीं को जाते
झुके हैं एक छाया बन
रही हैं माप आंखें
सहज वह दूरी
यहाँ से वहाँ तक की
बादलों से वनस्‍पतियों तक की
टूट
और अटूट!


तीन

निकल आई धूप
थिर-सी हवा
बूंदें कुछ अटककर
अब रही हैं झूल फूलों पर
लगे जो डालियों में
टहनियों में वृंत से अटके
उझककर झाँकती चिडि़यां
हरे भीगे हुए इस दृश्‍य में
कुछ गुंजा जाती हैं!


चार

खिली है काठचंपा
धूप में कुछ चमकती सी
धुली वर्षा से
गगन के तले
ऊपर को उठाए फूल
(जैसे थाल हो कोई)
मगन-सी
अर्चना में लीन!


पाँच
बेंच पत्‍थर की
रगड़ती चोंच चिडि़यां
(हो गई वह कुछ मुलायम
जल-परत से)
दिख रहीं पगडंडियां
वे घास पत्‍तों की
रही हैं कुछ
कहीं से छिप
पलक अनझिप
मुखरभी
मौन
सहसा लौटती
फिर चली जाती दूर-
आती लौट!
 
 

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