आघात
आघात से काँपती हैं चीज़ें
अनाघात से उससे ज़्यादा
आघात की आशंका से
काँपते पाया खुद को।
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नरेश सक्सेना
की
क्षणिकाएँ
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कुछ लोग
कुछ लोग पाँवों से नहीं
दिमाग़ से चलते हैं
ये लोग
जूते तलाशते हैं
अपने दिमाग़ के नाप के
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सीढ़ी
मुझे एक सीढ़ी की तलाश है
सीढ़ी दीवार पर
चढ़ने के लिए नहीं
बल्कि नींव में उतरने के लिए
मैं किले को जीतना नहीं
उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ
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दरार
ख़त्म हुआ इंटों के जोड़ों का
तनाव
प्लास्टर पर उभर आई
हल्की-सी मुस्कान
दौड़ी-दौड़ी चीटियाँ ले आईं
अपना अन्न जल
फूटने लगे अंकुर होने लगे उत्सव |
पानी
बहते हुए पानी ने
पत्थरों पर निशान छोड़े हैं
अजीब बात है
पत्थरों ने
पानी पर
कोई निशान नहीं छोड़ा |