कीर्ति नारायण मिश्र
जंगल : तीन कविताएँ
२
किसी अनजानी जगह
में
कोई अनजाना
किससे राह पूछे
जहाँ सबको अपनी-अपनी पड़ी हो
वहाँ कौन किसकी बात सुने
यहाँ सबने सीखी हुई है बन्द रहने की कला
`हाय-हलो' वाले कैसे पूरा खुलें भला
नपी-तुली-सधी मुस्कुराहटें
और हिलते हाथ
कब तक दें साथ
जहाँ हर कोई अकेला हो
किसी को किसी की न हो खबर
जहाँ अन्तर के तारों पर बजते हों
अलग-अलग स्वर
वहाँ भी
पौधे बौर वृक्ष फूल और कलियाँ
जंगल और झरने जलचर और नदियाँ
सुनाते रहते हैं अविराम
पर्वत को `साम'
खुलता रहता है अनायास सबका ताना-बाना
राह पा लेता है हर भूला-भटका अनजाना।
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