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कीर्ति नारायण मिश्र
जंगल : तीन कविताएँ

 

 

किसी अनजानी जगह में
कोई अनजाना
किससे राह पूछे
जहाँ सबको अपनी-अपनी पड़ी हो
वहाँ कौन किसकी बात सुने


यहाँ सबने सीखी हुई है बन्द रहने की कला
`हाय-हलो' वाले कैसे पूरा खुलें भला
नपी-तुली-सधी मुस्कुराहटें
और हिलते हाथ
कब तक दें साथ


जहाँ हर कोई अकेला हो
किसी को किसी की न हो खबर
जहाँ अन्तर के तारों पर बजते हों
अलग-अलग स्वर
वहाँ भी
पौधे बौर वृक्ष फूल और कलियाँ
जंगल और झरने जलचर और नदियाँ
सुनाते रहते हैं अविराम
पर्वत को `साम'
खुलता रहता है अनायास सबका ताना-बाना
राह पा लेता है हर भूला-भटका अनजाना।

 



हवाओं से टूटता सन्नाटा
झड़ते पत्ते
टूटती डालियाँ, हड़हड़ाते पत्थर

मैं अकेला थका हारा निर्वासन भोगता हुआ
मेरा चलना `चरैवेति चरैवेति' नहीं था
सिऱ्फ चलना था
मेरी साँसें भी चलती थीं
पर किसी जीवन के लिए नहीं
सिर्फ़ चलती थीं

मुझे तो कहीं से गुज़रना था
आ पड़ा इधर ही

अपने ताप-परिताप-संताप के साथ
पर इसने क्यों मान लिया अपने दुर्दिन का साथी
डाल दिया अपनी सूखी बाँहों का घेरा
कौन होता है यह मेरा
खोले क्यों इसने अपने द्वार
मैं कहाँ आया था इसके पास ।



जंगल
तुम
कितने अरक्षित
कितने उत्पीड़ित
कितने अशान्त हो

अभय थे
अरण्य बने
फिर अभ्यारण्य हुए
कितने उद्भ्रान्त हो

छाती पर क्या-क्या नहीं उगा लिये
पेड़-पौधे वनस्पतियाँ-औषधियाँ
शाल-सागवान चन्दन-चीड़
सबमें अपनी काया भरी

पक्षियों-वनचरों
बनैलों-विषैलों
पत्थरों-पर्वतों
सबको अपना हृदय-रस पिलाया
शुष्क को सरस
कठोर को कोमल
जड़ को चेतन बनाया

अक्षय भंडार था
तुम्हारे पास जीवन का
तुमने उसे जिया दिया मुक्त हो लुटाया

अब तो तुम
जड़ हो नग्न हो
हन्य हो भक्ष्य हो
तुमने जिन्हें जीवन दिया
उन्हीं के शरण्य हो

जंगल तुम
कितने उत्पीड़ित हो
कितने उद्भ्रान्त हो
कितने अशान्त हो ।

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