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कनक रेखा चौहान

  रेशमी रेशमी एक रज़ाई

छोटी थी मैं,
जब माँ ने बनवाई,
रेशमी रेशमी एक रज़ाई

सुर्ख चटख रंग था उसका, तीन किलो वज़न था उसका
वो नरमाहट, वो गर्माहट
माँ जैसा ही रुप-स्वरुप था उसका

चौराहे वाले फन्ने सिद्दीकी
नयी-नयी दुल्हन थी जिनकी
उन्हीं मेंहदी लगे हाथों ने, रुई धुनी थी उसकी

नाज़ुक नाज़ुक हाथों ने पक्के-पक्के धागों से
की थी तगाई,
तब जाकर बन पायी रेशमी रेशमी एक रज़ाई

राम खिलावन भय्या
रखकर उसको अपने सर
सीधे लेकर आये घर

“आ गयी आ गयी, मेरी रज़ाई आ गयी”
पर भय्या बोला, नहीं नहीं !
दीदी “तेरी नहीं, मेरी रज़ाई“
फिर एक बार घर में हुई लडाई



आखिर तय हुआ- एक दिन भय्या की
और एक दिन मेरी रहेगी, रेशमी रेशमी वो रज़ाई

सर्दी सर्दी निकाली जाती
ओढ़ने से पहले, धूप में डाली जाती
रेशमी रेशमी वो रज़ाई

खुशी के दिनों में,
लोट-कूद कर
हक जतलाती अपना उस पर

समय कठिन जो आता मुझ पर
रो लेती,
दुबक उसके भीतर

सुख-दुःख अपने कह लेती उससे
सखी बन गयी थी मेरी
रेशमी रेशमी एक रजाई

फिर, बड़ी हो गयी मैं, बूढी हो गयी वो,
ब्याह होने को था और एक बार फिर घर में आयी
रेशमी रेशमी कोई रज़ाई

“फोरेन“ की है
कितनी कोमल कितनी हलकी



माँ ने बतलाया,

बोलीं “अब यही फैशन में है
रुई से ज्यादा गरमाती है
एक्रिलिक कहलाती है“

घर छूटा, छूटे माँ और बाप
और वो सब, जो था मेरा, हो गया भाई का
और उसी की हो गयी रेशमी रेशमी वो रज़ाई

कितने पतझड़
कितने बसंत
कितने सावन बीत गए,

जब जब आती सर्दी दुखदायी
मुझको याद आ जाती
रेशमी - रेशमी वही रज़ाई

जब जब भी मैं जाती पीहर
ललचाती आँखों से देखती
अपनी सखी को नैना भर कर

नहीं जुटा पाती हिम्मत
कह दूँ “भय्या अब तो मुझको दे दो
रेशमी रेशमी ये रज़ाई “



समय विकट फिर कुछ ऐसा आया

छोड़ चला भय्या माता पिता का साया,
और घर-बार,
बना लिया उसने अपना अलग संसार

जिसमें रहते गुड़िया, अप्पू भाभी और भाई
पीछे छोड़ गया तो बस-यादें दुखदायी
और छोड गया रेशमी-रेशमी एक रज़ाई

वो भी हो गयी थी बेकार उसके लिए
जैसे हो चले थे बूढ़े, बेकार
माँ बाप उसके लिए

पर जैसा कह गए ज्ञानी-ध्यानी
कुछ तो अच्छा होता है
जब ऊपर वाला करता है मनमानी

अब सिर्फ और सिर्फ मेरे हैं,
मेरे माता-पिता
और रेशमी रेशमी वो रज़ाई

२८ जनवरी २०१३

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