अनुभूति में
अमरजीत सिंह की
रचनाएँ- छंदमुक्त में-
बटोही चाँद
झील
दस्तक
माँझी
गौरैया
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बटोही चाँद
दूर कहीं झिलमिलाती
आकाशगंगा
गूँज उठे वीणा के स्वर
महकती संदली हवा
जादू जगाती
रात बौराई-सी
गुनगुनाती
बुनने लगी तारों का जाल
बिखरने लगी चाँदनी
वन-प्रांतर में करती इंतज़ार
बटोही चाँद का...!
झील
झीनी-झीनी
छँटने लगीं
कोहरे की परतें
जागी स्वप्निल झील
चाँदी-सा जल
खिलते शतदल
करते क्रीड़ा पुलकित हंस
व्याकुल खगकुल भरते उड़ान
खो जाते दूर नील नीलय में...!
दस्तक
उतर आईं किरणें
सूर्य के रथ से
नूपुरों की छन-छन
पानियों की रुनझुन
बह रही बयार
सुरभित आकुल
बाँध आँचल में
कुछ वेदना के स्वर
आँगन में फिर से है
चि़ड़ियों का कूजन
वंशी के स्वर से है
गूँज उठा मधुबन
कौन दस्तक दे रहा
फिर द्वार पर...!
माँझी
माँझी
बह जाने दो नाव बीच धार
भँवर को छलने दो
चलने दो झंझावात
कि बिरहन लहरें
आतुर हैं आज समा जाने को
तट की बाँहों में...!
गौरैया
खिड़की पर आ बैठी गौरैया
चहचहाती
कहती कुछ बात कानों में...
देते संदेसा फूल
थिरकतीं कोंपलें
हवा की ताल पर
जग गई एक सृष्टि है
फिर ओस-कणों में...!
२७ जुलाई २००९
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