सुल्तान अहमद की
गज़लें
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मिले न मिले
सफर में रास्ता देखा हुआ मिले, न
मिले,
चलेंगे हम तो हमें रहनुमा मिले, न मिले।
बजा नहीं है शिकायत उमस की घर बैठे,
निकलके घर से भी ताज़ा हवा मिले, न मिले।
बनाके अपने ही हाथों को अपनी पतवारें,
इन आंधियों में चलें, नाखुदा मिले, न मिले।
सवाल दिल में उठेंगे तो हम उठाएँगे,
जवाब हमको किसी से बजा मिले, न मिले।
चढ़ाके चाक पे हम तो उन्हें बनायेंगे,
जलें चराग तो उसका सिला मिले, न मिले।
हरेक शख्स मिले बनके आदमी जैसा,
तो गम नहीं जो कोई देवता मिले, न मिले।
गज़ल ढूँढते
हैं
रास्ते जो हमेशा सहल ढूँढ़ते हैं,
हो–न–हो वो सराबों में जल ढूँढ़ते हैं।
जब भी लगता है अब इम्तहां है जरूरी,
उलझनें हम खड़ी करके हल ढूँढ़ते हैं।
जिनके चलने से हो जायें राहें मुअत्तर,
आदमी ऐसा हम आजकल ढूँढ़ते हैं।
बीज ऊसर में जो फेंकते हैं हमेशा,
कितनी शिद्दत से उसमें फसल ढूँढ़ते हैं।
धड़कनों से भरी बस्तियां छोड़ आये,
पत्थरों के नगर में गज़ल ढूँढ़ते हैं।
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