रमेश दीक्षित की
पाँच ग़ज़लें
दो
वे जिनके ओहदे, उनसे बड़े थे
सभी के सब, बड़े चिकने घड़े थे
ये जो बाज़ार में तनकर खड़े हैं
यही दरबार में औंधे पड़े थे।
वे जिनकी अक्ल पर पत्थर पड़े थे
वे ही हर ज़ुल्म से जमकर लड़े थे
जिन्हें सूरज सलामी दे रहा है
अंधेरों की गुलामी में खड़े थे।
उसूलों पर अभी तक जो अड़े हैं
भले ही हाशिए पर जा पड़े हैं
सही बदलाव के वाहक वही हैं
हमारे दौर के नायक वही हैं।
१२ जनवरी २००९ |
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एक
तंग गलियों में सियासत की,
भटकते रह गए
थी कशिश जिनको कि बदलेंगे ज़माने का मिज़ाज़
हर घड़ी जिनको किसी अवतार का है
इंतज़ार
ऐसे बंदों से भी खतरे में है यह अपना समाज।
ज़िंदगी की दौड़ में जो ख़ास
बढ़ पाए नहीं,
उनके बाग़ी तेवरों में भी छुपे हैं चंद राज़।
हाशिए पर साजिशन फेंका गया
जिनको कभी
उनके हाथों में ही है महफूज़ हिंदोस्तां का राज।
शहर में रुक कर तमाशा देखने का
क्या सबब
गाँव में छूटे पड़े हैं ढेर सारे काम काज
तीन
खिड़कियाँ, शाम को खुली होंगी
लड़कियाँ झाँकती रही होंगी
अपने सपनों के शाहज़ादों का
रास्ता ताकती रही होंगी।
माँ की पैनी सवालिया आँखें
रात भर जागती रही होंगी
बेटियों की सलामती के लिए
बस दुआ माँगती रही होंगी।
चार
पूजाघरों में कत्ल की साजिश रची
गई
इस शहर में हत्यारों की ज़ुर्रत तो देखिए।
हालात के जो चश्मदीद जानकार हैं
घर में दुबक के सोये हैं, ग़ैरत तो देखिए।
कातिल को यकीनन है मदद, कोतवाल
की
तोहमत है बेकसूर पे, फितरत तो देखिए।
हैवानियत, दरिंदगी, वहशत के
बावजूद
इंसानियत मिटी नहीं, हिम्मत तो देखिए। |