प्रेमकिरन
की गजल
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एक फ़साना
सैंकड़ों उन्वान देकर इक फ़साना बँट गया
अब तो पुरखो का मकाँ भी खाना–खाना बँट
गया
आज से पहले कभी आबो–हवा ऐसी न थी,
दिल बँटा, फिर दर बँटा, फिर आशियाना बँट गया
शाम थी तो साथ थे सब, दिन निकलते क्या हुआ
पेड़ के हर इक परिंदे का ठिकाना बँट गया
कौमी यकजहजी का मंज़र अब कहां देखेंगे लोग,
इंतहा से है कि अपना बादाखाना बँट गया
एक मसलक से न जाने कितने ही मसलक बने,
अब कहां सजदा करें जब आस्ताना बँट गया
सुबह बीती, दोपहर भी, शाम अब ढलने को है,
ज़िंदगी का तीन टुकड़े में ज़माना बँट गया
असमां को घर के आंगन से ज़रा देखो 'किरण'
ऐसा लगता है कि वो भी खाना–खाना बँट गया
१ जुलाई २००६ |