हिमांशु मोहन की
ग़जलें
इलेक्ट्रानिक एवं दूरसंचार
अभियंता हिमांशु मोहन का जन्म इलाहाबाद के एक साहित्यिक परिवार
में हुआ। माता पिता संस्कृत के परास्नातक थे तथा नाना कवि,
संस्कृत के विद्वान और विभागाध्यक्ष।
ऐसे वातावरण में स्वाभाविक रूप से आपका रूझान साहित्य की ओर
हुआ। सूचना, तकनीक, संगीत, लेखन, रंगमंच और खेल आपकी अन्य
रूचियां हैं। विशेष रूझान ग़़जलों और नज़मों की ओर है।
सम्प्रति भारतीय रेल की सिग्नल एवं दूरसंचार सेवा के माध्यम से
सचिव उत्तर मध्य रेलवे इलाहाबाद के पद पर कार्यरत हैं।
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मैं भी हूँ
बाकी बाकी सी प्यास मैं भी हूँ
गो उफ़नता गिलास मैं भी हूँ
जो अकेला सा दिख रहा है दरख्त़
उसी के आस पास मैं भी हूं
हमकदम वक़्त के बदलता रहा
अब ज़रा बदहवास मैं भी हूं
मेरे होंठों पे तबस्सुम ही सही
दोस्त मेरे उदास मैं भी हूं
आइनों में भी आपका चेहरा
आपके हमशनास मैं भी हूं
उसकी यादों का बक्स जंगशुदा
इक पुराना लिबास मैं भी हूं
ज़ुह़्द हो या उसूफ़े - शौक़ का दौर
मह्वे - तश्बीशो - यास मैं भी हूं
सब लोग ज़माने
में
सब लोग ज़माने में सितमगर नहीं
होते
क़द एक हो तो लोग बराबर नहीं होते
होते हैं मददगार कई बार अजनबी
जिन लोगों से उम्मीद हो अक्सर नहीं होते
उनको तलाश लेंगे करोड़ों के बीच हम
सारे गुलों के हाथ में पत्थर नहीं होते
कुद़रत के इल्तिफ़ात से है शायरी का फ़न
सब शेर कहने वाले भी शायर नहीं होते
हम ही नहीं ग़जल से-हमीं से ग़जल भी है
हम से दिवाने सारे सुख़नवर नहीं होते
१५ नवंबर
२००० |