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चकबस्त की रामायण
पहला हिस्सा:
बनबास जाने से
पेश्तर रामचंद्र जी की माँ से बातचीत
रूख़सत हुआ वो बाप से लेकर ख़ुदा का नाम
राहे-वफ़ा की मंज़िले-अव्वल हुई तमाम
मंज़ू़र था जो माँ की ज़ियारत का इंतिज़ाम
दामन से अश्क पोछ कर दिल से किया कलाम
इज़हारे-बेकसी से सितम होगा और भी
देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी
दिल को सँभालता हुआ आख़िर वो नौनिहाल
ख़ामोश माँ के पास गया सूरते-ख़याल
देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ताहाल
सकता-सा हो गया है यह है शिद्दते-मलाल
तन में लहू का नाम नहीं, ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं, कोई तस्वीरे-संग है
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शब्दार्थ- (रूख़सत -
विदा), (अव्वल - पहली) , (ज़ियारत - तीर्थ), (कलाम - बातचीत), (इज़हारे-बेकसी
- निराशा की अभिव्यक्ति), (नौनिहाल - जवान बेटा), (ख़स्ताहाल - दुख से बेहाल),
(सकता -बेहोशी का आलम, शिद्दते-मलाल - दुख की
तीर्वता), (ज़र्द - पीला, बशर - जीवन), (तस्वीरे-संग - पत्थर की तस्वीर) |
क्या जाने किस ख़याल में गुम थी वो बेगुनहा
नूरे-नज़र पे दीदा-ए-हसरत से की निगहा
जुंबिश हुई लबों को, फिर एक सर्द आह
ली गोशा हाए चश्म से अशकों ने रुख की राह
चेहरे का रंग हालते-दिल खोलने लगा
हर मूऐ-तन ज़बान की तरह बोलने लगा
आखिर, असीरे-यास का क़ुफ़ले-दहन खुला -
अफ़साना शदायदे-रंज-ओ-महन खुला
एक दफ्तरे-मुज़ालिमे-चर्खे-कुहन खुला
वो था दहाने-ज़ख़्म, कि बाबे-सुखन खुला
दर्द-ए-दिले-ग़रीब जो सर्फ-ए-बयाँ हुआ
ख़ून-ए-जिगर का रंग सुख़न से अयाँ हुआ
शब्दार्थ- (नूरे-नज़र - बेटा, दीदा -
दृष्टि), (जुंबिश - कंपन), (गोशा - चश्म - आँख से, रुख़ -
चेहरा), (हर मूऐ-तन - हर बाल, जिस्मानी बाल), (असीरे-यास
-दुख गृस्त, क़ुफ़ले-दहन) , (बंद मुह, मुह का ताला, शदायदे-रंज-ओ-महन),
(मुसीबत/दुख/पीड़ा/इम्तीहान, मुज़ालिम - कठोर), (चर्ख - चक्र, कुहन - पुराना, दहान
- मुँह) , (बाब-दरवाज़ा, सुख़न - बातचीत), (सर्फ-ख़र्च, अयाँ - स्पष्ट, प्रकट) |
रो कर कहा, ख़ामोश खड़े क्यों हो मेरी जाँ?
मैं जानती हूँ, किस लिए आए हो तुम यहाँ
सबकी ख़ुशी यही है तो सहरा को हो रवाँ
लेकिन मैं अपने मुँह से न हरगिज़ कहूँगी ''हाँ''
किस तरह बन में आँख़ के तारे को भेज दूँ?
जोगी बना के राज दुलारे को भेज दूँ?
दुनियाँ का हो गया है यह कैसा लहू सफ़ेद?
अंधा किए हुए हैं, ज़रो-माल की उम्मीद
अंजाम क्या हुआ? कोई नहीं जानता ये भेद
सोचे बशर, तो जिस्म हो लरज़ाँ मिसाले-बेद
लिखी है क्या हयाते-अबद इनके वास्ते?
फैला रहे हैं जाल यह किस दिन के वास्ते?
शब्दार्थ- (सहरा - जंगल, रवाँ - प्रस्थान करना),
(ज़रो-माल की उम्मीद - धन की आशा) , (बशर - इंसान, लरज़ाँ मिसाले-बेद
- बेंत को देख कर बच्चे का काँपना), (हयाते-अबद - न ख़त्म होने वाला जीवन, अमरत्त) |
लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम
होता न मेरी जान को सामान ये बाहम
डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम
तुम मेरे लाल, थे मुझे किस सल्तनत से कम
मैं ख़ुश हूँ, फूँक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को
तुम ही नहीं, तो आग लगाऊँगी राज को
किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माहो-साल
देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौनिहाल
पूरा हुआ जो बिहा का अरमान था कमाल
आफ़त आई मुझपे, हुए जब सफ़ेद बाल
छोटी हूँ उनसे, जोग लेना जिनके वास्ते
क्या सब किया था मैंने इसी दिन के वास्ते?
शब्दार्थ- (बाहम - एक साथ), (शौकत - वैभव, ऐश्वर्य, हशम -नौकर-चाकर),
(रियाज़त - महनत, तपस्या माह - महीनें), (नौनिहाल - जवान बच्चा,
बेटा) |
ऐसे भी नामुराद बहुत आएँगे नज़र
घर जिनके बे चिराग़ रहे आह! उम्र भर
रहता मेरा भी नख्ल़े-तमन्ना जो बेसमर
ये जाए सबर थी, कि दुआ में नहीं असर
लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर ही बिगड़ गया
फल फूल ला के बाग़े-तमन्ना उजड़ गया
सरज़द हुए थे मुझसे ख़ुदा जाने क्या गुनहा
मंझधार में जो यूँ मिरी कश्ती हुई तबहा
आती नज़र नहीं कोई अमन-ओ-अमान की राह
अब यहाँ से कूँच हो अदम में मिले पनहा
तक़सीर मेरी, ख़ालिक़-ए-आलम बहाल करे
आसान मुझ ग़रीब की मुश्किल अजल करे
शब्दार्थ- (नख्ल़ - पेड़ बेसमर - बिना फल का),
(जाए -सबर - सबर की जगह), (सरज़द
- वाक़या, घटित), (अमन-ओ-अमान - शांति, सुरक्षा), (अदम - परलोक), (ख़ालिक -
ईश्वर, तकसीर - दोष), (अजल - मौत) |
सुन कर ज़बाँ से माँ की यह फरियाद दर्द ख़ेज़
उस ख़स्ता जाँ के दिल पे ग़म की तेग़े-तेज़
आलम यह था क़रीब, कि आँखें हो अश्क रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
सोचा यही, कि जान से बेकस गुज़र न जाए
नाशाद हमको देख कर माँ और मर न जाए
फिर अर्ज़ की यह मादरे-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यों हैं आप? अलम का है क्यों वफ़ूर
सदमा यह शाक़ आलमे-पीरी है ज़रूर
लेकिन न दिल से कीजिए सब्र-ओ-क़रार दूर
शायद ख़िज़ाँ से शक्ल अयाँ हो बहार की
कुछ मसल्हत इसी में हो परवरदिगार की
शब्दार्थ- (तेग़े-तेज़ - तेज़ तलवार),
(अश्क रेज़ - आँसुओं से भरी), (गुरेज़ - रोकना, काबू), (मादरे-नाशाद - नाख़ुश, दुखी माँ), (अलम - ग़म: वफ़ूर - ज़्यादा),
(शाक़ -असह, नागब़ार), (आलमे-पीरी - बुढ़ापे के हालात, दशा), (ख़िजाँ -
पतझड: अयाँ - प्रकट), (मसल्हत - भेद, राज़, भलाई) |
ये जाल, ये फ़रेब, ये साज़िश, ये शोरो-शर
होना जो है, सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर
असबाबे-ज़ाहिरी हैं, न इन पर करो नज़र
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जल्वागर
ख़ास उसकी मसल्हत कोई पहचानता नहीं
मंजूर क्या उसे है? कोई जानता नहीं
राहत हो याकि रंज, ख़ुशी हो कि इंतिशार
वाजिब हर एक रंग में शुक्रे-क्रिदगार
तुम ही नहीं हो कुश्ता-ए-नैरंगे-रोज़गर
मातमकदे में दहर के लाखों हैं सोगबार
सख्त़ी सही नहीं, कि उठे कड़ी नहीं
दुनियाँ में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं
शब्दार्थ- (शोर -शर - फ़साद,
हंगामा), (कड़ी - मुसीबत से गुज़रना), (मातमकदा - शोक गृह: दहर - दुनिया), (कुश्ता-ए-नैरंग - फ़रेब के मारे), (क्रिदगार - ईश्वर), (इंतिशार -
तितिर-बितिर होना), (असबाब - सामान, कारण ज़ाहिरी - स्पष्ट,
प्रकट), (सर-ब-सर - बिल्कुल) |
देखे हैं इससे बढ़के ज़माने ने इंक़िलाब
जिनसे कि बेगुनहाओं की उम्रें हुईं ख़राब
सोज़े-दरूँ से क़ल्बो-जिगर हो गया कबाब
पीरी मिटी किसी की, किसी का मिटा शबाब
कुछ बन नहीं पड़ा, जो नसीबे बिगड़ गए
वो बिजलियाँ गिरीं, कि भरे घर उजड़ गए
माँ बाप मुँह ही देखते थे जिसका हर घड़ी
कायम थीं जिनके दम से उम्मीदें बड़ी-बड़ी
दामन पे जिनके गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी
मारी न जिनको ख़ाब में भी फूल की छड़ी
महरूम जब वो गुल हुए रंगे-हयात से
उनको जला के ख़ाक किया अपने हाथ से
शब्दार्थ- (महरूम - वंचित: हयात
- जीवन), (कल्ब -दिल: पीरी - बुढ़ापा: शबाब - जवानी), (सोज़े-दरूँ - मन, चित्त की जलन, तपिश)
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कहते थे लोग देख के माँ बाप का मलाल
इन बेकसों की जान का बचना है अब मुहाल
है किब्रिया की शान, गुज़रते हैं माह-ओ-साल
ख़ुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटा गया ख़याल
हाँ कुछ दिनों तो नोहा ओ मातम हुआ किया
आखिर को रोके बैठ गए, और क्या किया?
पड़ता है जिस ग़रीब पे रंजो-महन का बार
करता है उसको सब्र अता, आप किर्दगार
मायूस हो के होते हैं इंसाँ गुन्हागार
यह जानते नहीं, वो है दाना-ए-रोज़गर
इंसान उस की राह में साबित-ए-कदम रहे
गर दिन वही है, अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे
शब्दार्थ- (मुहाल - नामुमकिन),
(किब्रिया - ईश्वर), (हिज्र - वियोग, जदाई, फ़िराक़), (नोहा ओ
मातम - रोना-पीटना), (रंजो-महन
का बार - अफ़सोस और दुखों का बोझ), (अता - प्रदान: किर्दगार - ईश्वर), (दाना-ए-रोज़गर -संसार में सर्वोत्तम
बुद्धिमान), (साबित-ए-कदम - स्थिर पाँव, दृण, मज़बूत) |
और आपको तो कुछ नहीं रंज का मकाम
बादे-सफ़र वतन में हम आएँगे शाद काम
होते हैं बात करने में चौदहा बरस तमाम
कायम उम्मीद ही से है, दुनिया है जिसका नाम
और यूँ कहीं भी रंजो-बला से मफ़र नहीं
क्या होगा दो घड़ी में, किसी को ख़बर नहीं
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ
है दिन कि धूप, रात की शबनम उन्हें गिराँ
लेकिन जो रंग बाग़ बदलता है नागहाँ
वो गुल हज़ार पर्दो में जाते हैं रायगाँ
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जान की तरह
मिलते हैं दस्ते-यास वो बर्गे-ख़ेज़ान की तरह
शब्दार्थ- (शाद काम - कामयाब,
ख़ुशी ख़ुशी), (मफ़र -
बचाओ, उपाए), (रियाज़ -
परिश्रम, इबादत, तपस्या) , (गिराँ - भारी), (नागहाँ - अचानक) , (रायगाँ - बरबाद, बेकार, व्यर्थ),
(दस्ते-यास-नाउम्मीदी के हाथों,
बर्गे-ख़ेज़ान- उड़ती पत्ती ) |
लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बेशुमार
मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उन की नहीं बहार
देखो यह चमन आराई-ए-रोज़गर
वो अब्र-ओ-बाद-ओ-बऱ्फ में रहते हैं बरक़रार
होता है उनपे फ़ज़्ल जो रब्बे करीम का
मौजे सुमूम बनती है, झोंका नसीम का
अपनी निगाह है कर्मे-कारसाज़ पर
सहरा चमन बनेगा, वो है महरबाँ अगर
जंगल हो या पहाड़, सफ़र हो कि हो हज़र
रहता नहीं वो हाल से बंदे के बेख़बर
उसका करम शरीक अगर हो तो ग़म नहीं
दामने-दश्त, दामने-मादर से कम नहीं
शब्दार्थ- (मौक़ूफ़ - निर्भर,
मुनहसिर), (चमन आराई-ए-रोज़गर-दुनियाँ को सवारने वाला ईश्वर),
(अब्र-ओ-बाद-ओ-बर्फ़- बादल, हवा और बर्फ़), (फ़ज़्ल जो
रब्बे करीम- ईश्वर की दया), (मौजे सुमूम-ज़हरीली हवा, नसीम-हवा), (कर्मे-कारसाज़- ईश्वर की दया), (हज़र-सफ़र का उलटा घर में रहना),
(दश्त- जंगल, मादर- माँ) |
दूसरा हिस्सा: माँ का जवाब
यह गुफ़्तगू ज़रा ना हुई माँ के कारगर
हँस कर बफ़ूरे-यास से लड़के पे की नज़र
चहरे पे यूँ हँसी का नुमाया हुआ असर
जिस तरह चाँदनी का हो शमशान में गुज़र
पिन्हाँ जो बेकसी थी, वो चेहरे पे छा गई
जो दिल की मुर्दनी थी निगाहों में आ गई
फिर यह कहा कि मैंने सुनी सब यह दास्तान
लाखों बरस की उम्र हो, देते हो माँ को ज्ञान
लेकिन जो मेरे दिल को है दरपेश इम्तिहान
बच्चे हो, इसका इल्म नहीं तुम को बेगुमान
उस दर्द का शरीक तुम्हारा जिगर नहीं
कुछ ममता की आँच की तुम को ख़बर नहीं
आख़िर है उम्र, है यह मेरा वक़्ते-वापसी
क्या एतबार, आज हूँ दुनिया में, कल नहीं
लेकिन वो दिन भी आएगा, इस दिल को है यक़ीन
सोचोगे जब, कि रोती थी क्यों मादरे-हज़ीन
औलाद जब कभी तुम्हें सूरत दिखाएगी
फ़रियाद इस ग़रीब की तब याद आएगी
शब्दार्थ- (बफ़ूरे-यास-बहुत ज़्यादा नउम्मीदी),
(पिन्हाँ
- छुपी), (मादरे-हज़ीन- दुखी माँ) |
इन आँसुओं की क़द्र तुम्हे कुछ अभी नहीं
बातों से जो बुझे, यह वो दिल की लगी नहीं
लेकिन तुम्हे हो रंज, यह मेरी ख़ुशी नहीं
जाओ, सिधारो, ख़ुश रहो, मैं रोकती नहीं
दुनिया में बेहयाई से ज़िंदा रहूँगी मैं
पाला है मैंने तुमको, तो दुख भी सहूँगी मैं
नशतर थे राम के लिए यह हर्फ़-आरज़ू
दिल हिल गया, सरकने लगा जिस्म से लहू
समझे जो माँ के दीन को ईमाने-आबरू
सुननी पड़े उसको यह ख़जालत की गुफ़्तगू
कुछ भी जवाब बन न पड़ा फ़िक्र-ओ-ग़ैर से
क़दमों पे माँ के गिर पड़ा आँसू की तौर से
शब्दार्थ- (ख़जालत की गुफ़्तगू- पस्चाताप, नदामत) |
तूफ़ाँ आँसुओं का ज़ुबाँ से हुआ न बंद
रुक-रुक के इस तरह हुआ गोया वो दर्द मंद
पहुँची है मुझसे आपके दिल को अगर गज़ंद
मरना मुझे क़ुबूल है, जीना नहीं पसंद
जो बेवफ़ा है मादरे-नाशाद के लिए
दोज़ख़ यह ज़िंदगी है उस औलाद के लिए
है दौर इस ग़ुलाम से ख़ुदराई का ख़याल
ऐसा गुमान भी हो, यह मेरी नहीं मजाल
गर सौ बरस भी उम्र को मेरी न हो ज़बाल
जो दीन आपका है, अदा हो, यह है मुहाल
जाता कहीं न छोड़ के क़दमों को आपके
मजबूर कर दिया मुझे वादा ने बाप के
शब्दार्थ- (गज़ंद- हानि, नुकसान, दुख),
(मादरे-नाशाद-
नाख़ुश माँ), (दोज़ख़ - नर्क), (दोज़ख़ - नर्क), (ख़ुदराई
-अपनी राय पर चलना), (ज़बाल-कमी,गिराव), (मुहाल- मुश्क़िल, नमुमकिन) |
आराम ज़िंदगी का दिखाता है सब्ज़ बाग़
लेकिन बहारे ऐश का मुझको नहीं दिमाग़
कहते हैं जिसको धर्म, वो दुनिया का है चराग़
हट जाऊँ इस रविश से, तो कुल में लगेगा दाग़
बे आबरू यह बंश न हो, यह हवास है
जिस गोद में पला हूँ, मुझे उसका पास है
बनबास पर ख़ुशी से जो राज़ी न हूँगा मैं
किस तरह से मुहँ दिखाने के क़ाबिल रहूँगा मैं?
क्यों कर ज़बाने-ग़ैर के ताने सुनूँगा मैं
दुनिया जो यह कहेगी, तो फिर क्या कहूँगा मैं?
''लड़के ने बेहयाई को नक़्शे-ज़बीं किया
क्या बे-अदब था, बाप का कहना नहीं किया''
शब्दार्थ- (सब्ज़ - हरा),
(रविश-चलन,परंपरा), (हवास-इंद्रियाँ), (पास-लिहाज़, हिफ़ाज़त,
संकोच), (नक़्शे-ज़बीं-माथे से लगाना) |
तासीर का तिलिस्म था मासूम का ख़िताब
ख़ुद माँ के दिल को चोट लगी सुन के यह जवाब
ग़म की घटा मिट गई, तारीकीए-इताब
छाती भर आई, ज़ब्त की बाक़ी रही न ताब
सरका के पाओं गोद में सर को उठा लिया
सीने से अपने लख़्ते-जिगर को लगा लिया
दोनों के दिल भर आए, हुआ और ही समाँ
गंगो-जमन की तरह से आँसू हुए रवाँ
हर आँख को नसीब यह अश्के-वफ़ा कहाँ?
इन आँसुओं का मोल है, तो नक़्दे-जाँ
होती है इन की कद्र फ़कत दिल के राज में
ऐसा गुहर न था कोई दशरथ के ताज में
शब्दार्थ- (तिलिस्म-जादू,
ख़िताब-संबोधन, मुख़ातिब होना), (तारीकी-अंधेरा, इताब-गुस्सा),
(ज़ब्त-बर्दाश्त, ताब-गर्मी,ज़ोर), (लख़्ते-जिगर -बेटा या जिगर का टुकड़ा), (रवाँ-बह निकलना),
(गुहर-मोती), (नक़्दे-जाँ - जीवन धन) |
16 दिसंबर 2007 |
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