अंबर बहराइची की
चार ग़ज़लें
एक
पलाशों के सभी पल्लू हवा में उड़ रहे होंगे
मगर इस बार, बंजारे, सुना है ऊँघते होंगे
उसे भी आख़िरश मेरी तरह हँसना पड़ा अब के
उसे भी था यकीं, उस दश्त में हीरे पड़े होंगे
मुझे मालूम है इक रोज़ वो तशरीफ़ लाएगा
मगर इस पार सारे घाट दरिया हो चुके होंगे
हमारे सिलसिले के लोग खाली हाथ कब लौटे
पहाड़ों से नदी इस बार फिर वो ला रहे होंगे
वो मौसम, जब सबा के दोश पर खुशबू बिखेरेगा
हमारी कश्तियों के बादबाँ भी खुल चुके होंगे
वो खाली सीपियों के ढेर पर सदियों से बैठा है
उसे, मोती, समंदर की तहों में ढूँढ़ते होंगे
सियह शब तेज़ बारिश और सहमी-सी फ़िज़ा में भी
बये के घोंसले में चंद जुगनू हँस रहे होंगे
ये क्या 'अंबर' कि वीराने में यों ख़ामोश बैठे हो
चलो उट्ठो तुम्हारी राह बच्चे देखते होंगे
४ अगस्त २००८ |
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दो
सात रंगों की धनक यों भी सजा कर
देखना
मेरी परछाई ख़यालों में बसा कर देखना
आसमानों में ज़मीं के चाँद तारे
फेंक कर
मौसमों को अपनी मुट्ठी में छिपा कर देखना
फ़ासलों की कैद से धुंधला इशारा
ही सही
बादलों की ओट से आँसू गिरा कर देखना
लौट कर वहशी जज़ीरों से मैं
आऊँगा ज़रूर
मेरी राहों में बबूलों को उगा कर देखना
जंगली बेलें लिपट जाएँगी सारे
जिस्म से
एक शब, रेशम के बिस्तर पर गँवा कर देखना
मेरे होने या न होने का असर कुछ
भी नहीं
मौसमी तब्दीलियों को आज़मा कर देखना
दूध के सोंधे कटोरे, बाजरे की
रोटियाँ
सब्ज़ यादों के झुके चेहरे उठा कर देखना
ख़ाकज़ादे आज किस मंज़िल पे
'अंबर' आ गए
शहर में बिखरे हुए पत्थर उठा कर देखना
तीन
जलते हुए जंगल से गुज़रना था हमें
भी
फिर बर्फ़ के सहरा में ठहरना था हमें भी
मेयार नवाज़ी में कहाँ उसको
सुकूँ था
उस शोख़ की नज़रों से उतरना था हमें भी
जाँ बख़्श था पल भर के लिए लम्स
किसी का
फिर कर्ब के दरिया में उतरना था हमें भी
यारों की नज़र ही में न थे पंख
हमारे
खुद अपनी उड़ानों को कतरना था हमें भी
वो शहद में डूबा हुआ, लहजा, वो
तखातुब
इखलास के वो रंग, कि डरना था हमें भी
सोने के हिंडोले में वो खुशपोश
मगन था
मौसम भी सुहाना था, सँवरना था हमें भी
हर फूल पे उस शख़्स को पत्थर थे
चलाने
अश्कों से हर इक बर्ग को भरना था हमें भी
उसको था बहुत नाज़ ख़दो ख़ाल पे
'अंबर'
इक रोज़ तहे-ख़ाक बिखरना था हमें भी
चार
फिर उस घाट से ख़ुश्बू ने
बुलावे भेजे
मेरी आँखों ने भी ख़ुशआब नगीने भेजे
मुद्दतों, उसने कई चाँद उतारे
मुझमें
क्या हुआ? उसने जो इक रोज़ धुंधलके भेजे
मैंने भी उसको कई ज़ख़्म दिए
दानिस्ता
फिर तो उसने मेरी हर सांस को गजरे भेजे
मैं तो उस दश्त को चमकाने गया
था, उसने
बेसबब, मेरे तआक़ुब में उजाले भेजे
चाँद निकलेगा तो उछलेगा समंदर
का लहू
धुंध की ओट से उसने भी इशारे भेजे
मोर ही मोर थे हर शाख पे संदल
की मगर
ढूँढ़ने साँप वहाँ, उसने सपेरे भेजे
मेरी वादी में वहीं सूर्ख़
बगूले हैं अभी
मैंने इस बार भी सावन को क़सीदे भेजे
दस्तोपा कौनसे 'अंबर' वो
मशक़्क़त कैसी
उसकी रहमत, कि मुझे सब्ज़ नवाले भेजे
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