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अमर ज्योति नदीम की दो ग़ज़लें

  एक

मेरे घर के बाहर अक्सर
आ जाते हैं रिक्शे वाले,
दो पल रुक कर आपस में
बतिया जाते हैं रिक्शे वाले।

जेठ माह की दोपहरी में
जब कर्फ़्यू-सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में
सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।

गंगा-पार, बदायूँ, छपरा,
भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में
दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।

रिक्शा धोना, कुछ पल सोना,
बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहाँ
निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।

मिले सवारी तो झटपट
पैसे तय कर के चल पड़ते हैं,
वरना दो-दो घण्टे यहीं
बिता जाते हैं रिक्शे वाले।

दो

पेट भरते हैं दाल-रोटी से।
दिन गुज़रते हैं दाल-रोटी से।

दाल- रोटी न हो तो जग सूना,
जीते-मरते हैं दाल-रोटी से।

इतने हथियार, इतने बम-गोले!
कितना डरते हैं दाल-रोटी से!

कैसे अचरज की बात है यारो!
लोग मरते हैं दाल-रोटी से।

जो न सदियों में हो सका, पल में
कर गुज़रते हैं दाल-रोटी से।

लोग दीवाने हो गए हैं नदीम,
खेल करते हैं दाल-रोटी से।

१८ अगस्त २००८

 

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