आलम खुर्शीद की
पाँच ग़ज़लें
एक
जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया
मैंने समझा वाकई मौसम सलोना आ गया
डर रहा हूँ बेनियाज़ी अब कहाँ ले जाएगी
चलते-फिरते भी मेरी आँखों को सोना आ गया
एक चुल्लू आब लेकर फिर रहा है इस तरह
जैसे गागर में उसे सागर समोना आ गया
देखकर अंजाम फूलों का मैं घबराया बहुत
खुशगुमानी थी कि धागों में पिरोना आ गया
क्यों शिकायत है भला दरिया की वुसअत से हमें
चंद कतरों ही से जब लब को भिगोना आ गया
तख़्त पर बैठा हुआ यों खेलता हूँ ताज से
जैसे इक बच्चे के हाथों में खिलौना आ गया
कोई भी 'आलम' लबे दरिया अभी पहुँचा नहीं
नाखुदाओं को मगर कश्ती डुबोना आ गया।
दो
मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में
खामोश बह रहा था ये दरिया अभी-अभी
देखा मुझे तो आ गई मौजे तरंग में
वुसअत में आसमान भी लगता था कम मुझे
पर ज़िंदगी गुज़र गई इक शहरे-तंग में
किरदार क्या है मेरा- यही सोचता हूँ मैं
मर्ज़ी नहीं है, फिर भी मैं शामिल हूँ जंग में
शीशा मिज़ाज हूँ मैं, मगर ये भी खूब है
अपना सुराग ढूँढ़ता रहता हूँ संग में
इक-दूसरे से टूट के मिलते तो हैं मगर
मसरूफ़ सारे लोग हैं इक सर्द जंग में
क्या फ़र्क है ये अहले-नज़र ही बताएँगे
कुछ फ़र्क तो ज़रूर है फूलों के रंग में।
२
जून २००८ |
तीन
सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चिराग तो जलता हुआ नज़र आया
दुखों ने राब्ते मज़बूत कर दिए
अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया
ये प्यास मुझको जमीं पर गिराने
वाली थी
कि एक चश्मा उबलता हुआ नज़र आया
वो मेरे साथ भला कितनी दूर
जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया
नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर
मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया
तवकआत ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया
शिकस्त दे के मुझे खुश तो था
बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया।
चार
उठाए संग खड़े हैं सभी समर के
लिए
दुआएँ खैर भी माँगे कोई शज़र के लिए
हमेशा घर का अंधेरा डराने लगता
है
मैं जब चिराग जलाता हूँ रहगुज़र के लिए
ख़याल आता है मंज़िल के पास आते
ही
कि कूच करना है इक दूसरे सफ़र के लिए
कतार बाँधे हुए, टकटकी लगाए हुए
खड़े हैं आज भी कुछ लोग इक नज़र के लिए
वहाँ भी अहले-हुनर सर झुकाए
बैठे हैं
जहाँ पे कद्र नहीं इक ज़रा हुनर के लिए
तमाम रात कहाँ यों भी नींद आती
है
मुझे तो सोना है इक ख़्वाबे-मुख्तसर के लिए
हम अपने आगे पशीमान तो नहीं
'आलम'
हमें कुबूल है रुसवाई उम्र भर के लिए।
पाँच
याद करते हो मुझे क्या दिन निकल
जाने के बाद
इक सितारे ने ये पूछा रात ढल जाने के बाद
मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यों
देखता हूँ आसमान
यह ख़याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद
एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ
रस्ते तमाम
भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद
दोस्तों के साथ चलने में भी हैं
खतरे हज़ार
भूल जाता हूँ हमेशा मैं सँभल जाने के बाद
फासला भी कुछ ज़रूरी है चिरागां
करते वक्त
तजुर्बा यह हाथ आया हाथ जल जाने के बाद
वहशते-दिल को बियाबाँ से है इक
निस्बत अजीब
कोई घर लौटा नहीं घर से निकल जाने के बाद
आग ही ने हम पे नाज़िल कर दिया
कैसा अजाब
कोई भी हैरां नहीं मंज़र बदल जाने के बाद
अब हवा ने हुक्म जारी कर दिया
बादल के नाम
खूब बरसेगी घटाएँ शहर जल जाने के बाद
तोड़ दो 'आलम' कमाँ या तुम कलम
कर लो ये हाथ
लौटकर आते नहीं हैं तीर चल जाने के बाद।
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