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हल्की धूप |
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हाड़ कँपाती इस सर्दी में
क्यों है मेरा मद्धिम रूप
पूछ रही है हल्की धूप
बाजारों में रखे हुए हैं
स्वेटर, जाकिट, मफलर, कोट
खाली जेब , भरी सर्दी में
करती तन पर, मन पर चोट
चिढ़ा रहा है माह दिसम्बर
उस पर कोहरे का विद्रूप
पूछ रही है हल्की धूप
जाने कितनी हुईं बैठकें
सूरज अध्यक्षता तले
आश्वासन हर बार मिला, पर
वादे थोथे ही निकले
अब तक वही अवस्था मेरी
कितने बने-मिटे प्रारूप
पूछ रही है हल्की धूप
जब-जब रूप निखरना चाहा
रचा घटाओं ने षड़यंत्र
धूप-धूप में अंतर रखकर
अपने खेल खेलता तंत्र
क्यों मौसम हर बार बदलता,
अपनी सुविधा के अनुरूप
पूछ रही है हल्की धूप
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प्रवीण पारीक अंशु |
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