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१३. १०. २०१४-

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सुई

     

सुबह उधेड़े शाम उधेड़े
बजती हुई सुई

सीलन और धुएँ के खेतों
दिन भर रूई चुनें
सूजी हुई आँख के सपने
रातों सूत बुनें
आँगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई
एक तलाश पहन कर भागे
किरणें छुई-मुई
बजती हुई सुई

धरती भर कर चढ़े तगारी
बाँस-बाँस आकाश
फरनस को अगियाया रखती
साँसें दे दे घास
सूरज की साखी में बँटते
अँगुली जितने आज और कल
बोले कोई उम्र अगर तो
तीबे नई सुई
बजती हुई सुई

- हरीश भादानी

इस सप्ताह

गीतों में-

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हरीश भादानी

अंजुमन में-

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चंद्रशेखर पांडेय शेखर

हँसिकाओं में-

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सरोजिनी प्रीतम

दोहों में-

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श्यामल सुमन

पुनर्पाठ में-

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राजीव कुमार श्रीवास्तव 

पिछले सप्ताह
 ६ अक्तूबर २०१४ के अंक में

 

 

छंदमुक्त में-
प्रभा मजूमदार

कुंडलिया में-
डॉ. नलिन


गीतों में-
बृजेश द्विवेदी अमन

अंजुमन में-
अरुण कुमार अनंत

पुनर्पाठ में-
ऋतेश खरे

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी